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________________ नेमिकुमार को वापिस मुड़ते देख शिवादेवी और समुद्रविजय शीघ्र ही वहाँ आकर नेत्रों में अश्रु लाकर बोले 'वत्स! इस उत्सव में से अचानक कैसे लौट रहे हो? नेमिकुमार बोले- 'हे माता-पिता! जिस प्रकार ये प्राणी बंधन से बंधे हुए थे, वैसे ही हम सब भी कर्म रूपी बंधन से बंधे हुए हैं। जैसे मैंने उनको बंधन से मुक्त किया, वैसे मैं भी कर्मबंधन से मुक्त होने के लिए अद्वैत सुख का कारण रूप दीक्षा ग्रहण करने का इच्छुक हूँ।' नेमिकुमार के ऐसे वचन सुनकर उनके माता पिता मूर्छित हो गये और सर्व यादव नेत्रों से अविच्छिन्न अश्रुपात कर करके रोने लगे। उसी समय कृष्ण ने वहाँ आकर शिवादेवी और समुद्रविजय को आश्वासन देकर सर्व का रूदन निवार कर अरिष्टनेमि को कहा, 'हे मानवंता भाई! तुम मुझे और राम को सदा मान्य हो। तुम्हारा अनुपम रूप है और नवीन यौवन है, फिर यह कमललोचन राजीमति तुम्हारे योग्य है। इस उपरांत भी तुमको वैराग्य होने का क्या कारण है ? वह कहो और तुमने जिन प्राणियों को बंधा हुआ देखा था उनको भी तुमने बंधन से छुड़ा दिया है। तो अब तुम्हारे माता-पिता और बुधओं के मनोरथ को पूर्ण करो। हे बंधु! तुम्हारे माता-पिता तो महाशोक में निमग्न हो गये हैं, उनकी उपेक्षा करना योग्य नहीं है। उनके ऊपर भी सर्व की तरह साधारण कृपा करो। जैसे तुमने इन दीन प्राणियों को खुश किया, वैसे ही अब तुम्हारा विवाहोत्सव मनाकर बलराम आदि भाईयों को भी खुश करो। ___ (गा. 181 से 191) नेमिनाथ बोले- 'हे बांधव! मेरे माता-पिता और तुम बंधुओं को शोक होने का कुछ भी कारण मुझे दिखाई नहीं देता और मुझे वैराग्य होने का कारण तो यह है कि यह चतुर्गतिरूप संसार हेतु इसमें उत्पन्न हुए प्राणी निरन्तर दुःख का ही अनुभव करते हैं। प्रत्येक भव में माता-पिता और भाई तो होते ही रहते हैं, परन्तु इनमें कोई भी तुम्हारे कर्म के भागीदार नहीं होते हैं। सभी को अपने अपने कर्म भोगने पड़ते हैं। हे हरि! यदि दूसरे का दुःख अन्य से नाश होता हो तो विवेकी मनुष्य माता-पिता के लिए प्राण भी दे दे। परंतु प्राणी पुत्रादिक के होने पर जरा, मृत्यु आदि के दुःख स्वयं ही भोगता है। इसमें कोई किसी का रक्षक नहीं होता है। यदि पुत्र पिता दृष्टि को आनंदभाव देने के लिये है तो उनका एक और पुत्र महानेमी भी तो है। वे भी तो आनंद के हेतु हो सकते हैं। मैं तो वृद्ध पांथ की तरह संसार रूप मार्ग में गमनागमन करके खिन्न हो गया हूँ। 254 . त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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