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________________ तीन लोक में आभूषण रूप ऐसे ये मुझे जो पति रूप में प्राप्त हों तो फिर मेरे जन्म का फल क्या पूर्ण नहीं हुआ? यद्यपि ये तो विवाह करने की इच्छा से ही यहाँ आए हैं, तथापि मुझे प्रतीति होती नहीं है। कारण कि ऐसे पुरुष अति पुण्य हों तो ही प्राप्त होते हैं।' इस प्रकार वह चिन्तन कर ही रही थी कि इतने में उसका दक्षिण लोचन और दक्षिण बाहु फड़कने लगी। इससे उसके मन में और अंग में संताप उत्पन्न हो गया। फिर धारागृह की पुतली की तरह नेत्र में से अश्रु वर्षाती हुई राजीमति ने अपनी सखियों से गद्गद् स्वर से यह बात बताई। यह सुनकर सखियाँ बोली ‘सखी! पाप शांत हो, अमंगल दूर हों और सर्व कुलदेवियाँ तेरा कल्याण करें। बहन! धैर्य रख। ये तेरे वर पाणिग्रहण से उत्सुक होकर यहाँ आए हैं, चलते हुए इस विवाहमहोत्सव में तुझे अनिष्टचिंता किसलिए होती है ? (गा. 163 से 170) इधर नेमिनाथ ने आते-आते प्राणियों का करूण स्वर सुना, इससे उसका कारण जानने पर भी सारथि को पूछा कि 'यह क्या सुनाई दे रहा है ? सारथि ने कहा, नाथ! क्या आप नहीं जानते ? यहाँ आपके विवाह में भोजन के लिए विविध प्राणियों को लाया हुआ है। हे स्वामिन्! मेढ़े आदि भूमिचर, तीतर आदि खेचर और गांवों के और अश्वी के प्राणी यहाँ भोजन के निमित्त पंचत्व को प्राप्त करेंगे। उनको रक्षकों ने वाड़े में भर रखा है, इससे वे भयत्रस्त होकर पुकार कर रहे हैं। क्योंकि सर्व जीवों को प्राणविनाश का भय सबसे बड़ा होता है। पश्चात् दयावीर नेमिप्रभु ने सारथि को कहा कि जहाँ ये प्राणी हैं, वहाँ मेरा रथ ले चलो। सारथि ने तत्काल वैसा ही किया। इसलिए प्रभु ने प्राणनाश के भय से चकित हुए विविध प्राणियों को वहाँ देखा। किसी के रस्सी को गले से बांधा हुआ था। ऊँचे मुख वाले, दीन नेत्र वाले और जिनके शरीर कांप रहे थे ऐसे उन प्राणियों को दर्शन से ही तृप्त करते हैं, वैसे नेमिनाथ प्रभु को देखा। तब वे अपनी अपनी भाषा में पाहि, पाहि (रक्षा करो, रक्षा करो) ऐसे बोले। यह सुनकर शीघ्र ही प्रभु ने सारथि को आज्ञा करके उनको छुड़ा दिया। वे प्राणी अपने अपने स्थान पर चले गये। तब प्रभु ने अपना रथ वापिस अपने घर की ओर मोड़ने हेतु सारथी से कहा। (गा. 171 से 180) वेषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 253
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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