________________
तुम्हारी देह ही दो। हे सुन्दरी! जिसके लिए रूक्मिणी देवी ने तुम्हारी मांग की थी, वह प्रद्युम्न मैं स्वयं, हँ। 'अहो दैवयोग से विधि की घटना योग्य हई।' ऐसा बोलती हुई वैदर्भी ने उन वचनों को स्वीकारा। पश्चात् तुरंत ही विद्या के बल द्वारा उत्पन्न करे हुए अग्नि की साक्षी से मंगलकंकण वाली और श्वेत रेशमी वस्त्र को धारण करने वाली उस बाला से प्रद्युम्न ने अग्नि की साक्षी में विवाह किया और कृष्ण के कुमार ने उसी रात्रि को विविध प्रकार से उसके साथ क्रीड़ा की। अवशेष रात्रि रहने पर तब वह बोला, “प्रिये! मैं मेरे भाई शांब के पास जा रहा हूँ। परंतु यदि तुझे इस विषय में तेरे मातापिता या परिवार वालें पूछे तो तू कुछ भी जवाब मत देना। यदि वे कुछ भी उपद्रव करें तो मैंने तेरे शरीर की रक्षा की व्यवस्था की हुई है। ऐसा कहकर प्रद्युम्न चला गया। वैदर्भी अति जागरण से और अति श्रम से श्रांत होकर सो गई, वह प्रातःकाल भी जगी नहीं। समय होने पर उसकी धायमाता वहाँ आई, तब उसने वैदर्भी के कर में मंगलकंकण आदि चिह्नों को देखा तो शंकित हुई। इससे शीघ्र ही उसने वैदर्भी को जगा कर पूछा, परंतु वैदर्भी ने कुछ भी जवाब नहीं दिया। इसलिए स्वयं अपराध में न आ जाय अतः भयविह्वल होकर यह बात रूक्मि राजा के पास जाकर उसे कह सुनायी। राजा-रानी ने आकर वैदर्भी को पूछा, परंतु उसने कुछ भी जवाब नहीं दिया। परंतु विवाह और संभोग के चिह्न उसके शरीर पर स्पष्ट देखने में आये। इससे रूक्मि ने विचार किया कि जरूर इस कन्या के साथ किसी अधम पुरुष ने स्वेच्छा से इसके साथ क्रीड़ा की है। अब इस अधम कन्या को उन दोनों चंडालों को देना ही योग्य है। ऐसा विचार आने पर राजा ने क्रोध से छड़ीदार से उन दोनों चंडालों को बुलाया और कहा कि इस कन्या को ग्रहण करो और तुम ऐसे स्थान पर चले जाओ कि पुनः तुमको देखू ही नहीं। ऐसा कहकर क्रोधित होकर रूक्मि ने उनको वैदर्भी दे दी। उन्होंने वैदर्भी से कहा कि 'हे राजपुत्री! तुम हमारे घर रहकर जल भरने का और चर्म-रज्ज आदि बेचने का काम करोगी? परमार्थ जानने वाली वैदर्भी ने कहा- जो देव करायेंगे, वह मैं अवश्य करूँगी क्योंकि दैव का शासन दुर्लध्य है। तब वे अति धैर्यता से वैदर्भी को लेकर वहाँ से अन्यत्र चले गये।
(गा. 38 से 75) रूक्मि राजा सभा में आकर अपने कार्य से हुए पश्चाताप से रूदन करने लगे। अरे वत्स वैदर्भी! कहाँ गई ? तेरा योग्य संयोग हुआ नहीं। हे नंदने! मैंने
214
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)