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________________ था। अब मैं भी उसकी योग्यता के अनुसार करके उसकी पुत्री से विवाह करूँगा। इस प्रकार कहकर शांब को साथ लेकर आकाशमार्ग से प्रद्युम्न भोजकर नगर में गया। उन दोनों में से एक ने किन्नर का और दूसरे ने चाण्डाल का रूप धारण किया और दोनों गायन करते करते संपूर्ण शहर में घूम कर मृग की तरह सर्व लोगों का मन मोहित करने लगे। यह समाचार सुनकर रूक्मि राजा ने उस मधुर स्वर वाले गांधर्व और चाण्डाल को अपने पास बिठाकर उन दोनों के पास गायन कराया। उनका गीत सुनकर हर्षित हुए परिवार सहित रूक्मि ने उनको बहुत सा द्रव्य दिया और पूछा कि तुम कहाँ से आये हो? वे बोले, हम स्वर्ग से द्वारिका में आए हैं, क्योंकि कृष्ण वासुदेव के लिए वह नगरी स्वर्गवासी देवों ने रची है। उस समय वैदर्भी हर्षित होकर बोली कि वहाँ कृष्ण और रूक्मिणी का प्रद्युम्न नाम का पुत्र है, उसे तुम जानते हो? शांब बोला ‘रूप में कामदेव और पृथ्वी का अलंकार भूत तिलक जैसा उस महापराक्रमी प्रद्युम्न कुमार को कौन नहीं जानता? यह सुनकर वैदर्भी रागगर्भित उत्कंठा वाली हो गई। उस समय राजा का उन्मत्त हाथी खीला उखाड़ कर छूह कर नगर में दौड़ने लगा। अकाल में तूफान मचाता और पूरे नगर में उपद्रव करते हुए उस हाथी को कोई भी वश में नहीं कर सका। उस समय रूक्मी राजा ने पटह बजाकर ऐसा आघोषणा कराई कि 'जो कोई इस हाथी को वशीभूत करेगा, उसे मैं इच्छित वस्तु दूँगा। किसी ने भी उस पटह को नहीं स्वीकारा। तब इन दोनों वीरों ने पटह स्वीकारा और गीतों के द्वारा ही उस हाथी को स्तंभित कर दिया। फिर उन दोनों ने उन हाथी पर आरूढ़ होकर उसे बंधन स्थान में लाकर बांध दिया। नगरजनों को आश्चर्यचकित करते हुए उन दोनों को राजा ने हर्ष से बुलाया। तब कहा-तुमको जो चाहिये वह मांग लो।' तब उन दोनों ने कहा कि हमारे कोई धान्य रांधने वाली नहीं है अतः इस वैदर्भी को हमें दे दो। यह सुनकर रूक्मि राजा अत्यधिक क्रोधायमान होकर उनको नगर से बाहर निकलवा दिया। नगर के बाहर जाने के बाद प्रद्युम्न ने शांब को कहा, भाई! रूक्मिणी दुःखी होती होगी, इसलिए वैदर्भी से विवाह में बिलंब करना उचित नहीं है। इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि चन्द्र ज्योत्सना लिये रात आ गई। जब सब लोग सो गये थे तब प्रद्युम्न अपनी विद्या से जहाँ वैदर्भी सो रही थी उस स्थान में गया। वहाँ उसने रूक्मिणी का कृत्रिम लेख बनाकर वैदर्भी को दिया। वह पढ़कर वैदर्भी बोली, 'कहो तुमको क्या दूँ? प्रद्युम्न ने कहा, सुलोचने! मुझे तो त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 213
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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