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साथ विहार करता था। क्योंकि साधुओं की एक स्थान पर स्थिति नहीं होती । एक बार गच्छ के साथ विहार करते हुए दिग्भ्रम होने से अरण्य में रास्ता भूल गया। साथ ही भ्रष्ट होकर मैं इधर-उधर भटकने लगा। अंत में क्षुधा और तृषा से आक्रान्त होकर इस स्थान पर मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तुमने शुभोपाय से मेरी मूर्च्छा दूर कर सचेत किया । हे महाभाग ! हे अनध! तुमको बारबार धर्मलाभ हो। जिस प्रकार मैं पहले अचेतन होकर गिर पड़ा था, उसी प्रकार इस संसार में सबकुछ ऐसा ही है, इसलिए शुभेच्छु जनों को निरन्तर धर्म करना चाहिए। इस प्रकार कहकर मुनिचंद्र मुनीश्वर ने उनके योग्य श्री जिनोक्त सम्यक्त्वमूल गृहीधर्म का कथन किया। अतः धनकुमार ने धनवती सहित मुनिचंद्र मुनि को अपने आवास पर ले जाकर अन्न-पान से प्रतिलाभित किया। धनकुमार ने धर्मशिक्षा के लिए उन मुनि श्री को वहीं पर रोका । धनकुमार धर्मशिक्षा प्राप्त कर मुनि के गच्छ में सम्मिलित हो गये। तब से धनवती और धनकुमार परम श्रावक हो गए। ये दंपत्ति पहले ही परस्पर प्रीति रखते थे, धर्मकार्य में जुड़कर विशेष प्रीति वाले हो गए । राजा विक्रमधन ने जीवन के अंतसमय में धनकुमार को राज्य पर अभिषिक्त किया । धनकुमार श्रावक धर्म सहित विधिपूर्वक पृथ्वी का भी पालन करने लगे ।
(गा. 118 से 128)
एक समय उद्यानपाल ने आकर धनकुमार को बधाई दी कि जो पहले यहाँ पधारे थे, वे वसुंधर मुनि उद्यान में पधारे हैं। ऐसा सुनकर धनकुमार धनवती को साथ लेकर तत्काल उद्यान में आए। मुनि को वंदना - पर्युपासना करके संसार सागर से तरने में विशाल नाविका जैसी देशना सुनी। फलतः संसार से उद्विग्न धनकुमार ने धनवती जयंत नामक पुत्र के पास संयम अंगीकार किया। बाद में उनके भाई धनदत्त और धनदेव ने भी दीक्षा ली । धनमुनि गुरु की छत्रछाया में कठिन तप करने लगे । अनुक्रम से गुरुजी ने गीतार्थ हुए उस मुनिपुंगव को आचार्य पद पर स्थापित किया । बहुत से राजाओं को प्रतिबोध देकर दीक्षा का अनुग्रह करके अंत में सद्बुद्धि वाले धनर्षि ने धनवती के साथ अनशन अंगीकार किया। एक मास के अंत में मृत्यु प्राप्त कर वे दोनों सौधर्म देवलोक में शक्र के समानिक महर्द्धिक देवता हुए । धनकुमार के बंधु धनदेव और धनदत्त एवं अन्य भी अखंडित व्रत का पालन करके मृत्यु के पश्चात् सौधर्म देवलोक में देवता हुए ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
(गा. 129 से 136)
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