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इधर धर्मघोष आचार्य धर्मरूचि मुनि को इतना विलंब क्यों हुआ ? यह जानने के लिए अन्य साधुओं को तलाश करने भेजा । जब उन्होंने बाहर जाकर देखा तो उनको मरण शरीर पाया। तब उनका रजोहरण आदि लेकर गुरू के पास आकर अतिखेद पूर्वक सर्व बात गुरू जी को बताई । गुरूजी ने अतिशय ज्ञान के उपयोग से जानकर अपने सर्व शिष्यों को नागश्री का दुश्चरित्र बताया । जो श्रवण कर सर्व मुनियों एवं साध्वियों को कोप उत्पन्न हुआ । यह सर्व वृत्तांत सोमदेव आदि अनेक लोगों को बताया । यह सुनकर सोमदेव आदि विप्रों ने नागश्री को घर से बाहर निकाल दिया। लोगों ने भी उसका बहुत तिरस्कार किया, जिससे वह सर्वत्र दुःखी होकर भटकने लगी और खास श्वास, ज्वर और कुष्ठ आदि सोलह भंयकर रोगों से पीडित होती हुई उस भव में ही नारकीय यातनाएं भोगने लगी। इस प्रकार क्षुधा, तृषा से आतुर फटे टूटे वस्त्रों को पहने निराधार भटकती हुई यह स्त्री मर कर छट्ठी नरक में गई। वहाँ से निकलकर चंडाल जाति में उत्पन्न हुई और मृत्यु के पश्चात सातवीं नरक में गई । पुनः म्लेच्छ जाति में उत्पन्न होकर सप्तम नरक में गई ।
(गा. 307 से 314 )
इस प्रकार पापिनी सभी नरक में दो दो बार जा आई । पृथ्वीकाय आदि में भी उसने अनेक बार जन्म लिया और अकाम निर्जरा करती हुई अनेक कर्म खपाये। इस प्रकार अनेकानेक जन्मों के पश्चात चंपानगरी में सागरदत सेठ की स्त्री सुभद्रा के उदर से सुकुमारिका नाम की पुत्री हुई। उसी नगर में जिनदत नाम का एक धनाढ्य सार्थवाह रहता था । उसके भद्रा नाम की गृहिणी और सागर नाम का पुत्र था। एक बार जिनदत सागरदत के घर गया, वहाँ सुकुमारिका युवती को देखा। वह महल पर चढकर कंदुक क्रीड़ा कर रही थी । उसे देखकर जिनदत ने विचार किया कि यह कन्या मेरे पुत्र के योग्य है । ऐसा चिंतन करके वह अपने घर आया। पश्चात अपने बंधुवर्ग के साथ सागरदत्त के घर जाकर अपने पुत्र के लिए सुकुमारिका की मांग की। सागरदत्त बोली यह पुत्री मुझे प्राणों से भी प्यारी है, इसके बिना मैं क्षणभर भी नहीं रह सकता । यदि तुम्हारा पुत्र सागर जो मेरे यहाँ घर जंवाई होकर रहे तो मैं अपनी पुत्री को विपुल द्रव्य के साथ तुझे अर्पण करूँ । तब मैं विचार कर के कहूँगा ऐसा कह जिनदत्त अपने घर गया। यह बात उसने सागर को कही ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
(गा. 315 से 318)
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