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प्रथम सर्ग
श्री अरिष्टनेमि के पूर्वभव का वर्णन
सर्व जगत् के स्वामी, बाल ब्रह्मचारी, और कर्मरूपी वल्ली के वन के छेदन करने में नेमि अर्थात् तीक्ष्ण धारवाले चक्र के समान श्री अरिष्टनेमि को नमस्कार हो। अब अहंत श्री नेमिनाथ, वासुदेव, कृष्ण, बलदेव-बलभद्र और प्रतिवासुदेवजरासंध के चारित्र का विवेचन किया जाएगा।
इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में पृथ्वी के शिरोरत्न सदृश अचलपुर नाम का नगर था। युद्ध में पराक्रम से शत्रुओं पर आक्रमण करने वाला विक्रमधन नामक गुणनिष्पन्न वहाँ का राजा था। वह राजा शत्रुओं के लिए यमराज की भांति दुष्प्रेक्ष्य था और मित्रों के लिए तो चंद्र के सदृश नेत्रानंददायी था। प्रचंड तेजस्वी उस राजा का भुजदंड स्नेहियों के लिए कल्पवृक्ष और वैरियों के लिए वज्रदंड तुल्य था। जिस प्रकार सागर में सरिताएँ आकर समा जाती हैं, उसी प्रकार सर्व दिशाओं से संपत्ति आ–आकर उसके ऐश्वर्य को बढ़ा देती थी, और पर्वतों में झरनों की भांति उसमें से कीर्ति प्रकट होती थी। उस राजा की पृथ्वी जैसी स्थिर और उज्ज्वल शीलरूप से अलंकृत धारिणी नामक रानी थी। सर्वांग सुंदर और पवित्र लावण्य से सुशोभित यह रानी मानो राजा की मूर्तिमंत लक्ष्मी के समान थी। गति और वाणी से हंसनी रूप और लक्ष्मी के आसनरूप पद्मनी के समान रमण करने वाली, समपुष्प में भ्रमरी की तरह रानी अपने हृदय में अवस्थित थी।
(गा. 1 से 10) एक समय धारिणी देवी ने रात्रि के शेषभाग में भँवरों और कोयलों से मत्त एवं विपुल मंजरियों से प्रफुल्लित फलित एक आम्रवृक्ष को स्वप्न में देखा। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)