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जानकर यहाँ आपके दर्शन करने आया हूँ। आज से मैं आपका धर्म पुत्र हूं। इस प्रकार वैदर्भी को कहकर पश्चात वह देव गाँव से आए बंधुओं की भांति सर्व तापसों को मधुर एवं स्नेह समर वाणी से बोला- हे तापसो! पूर्व भव में मैंने आपके ऊपर जो कोपाचरण किया है, वह क्षमा करना और तुमने श्रावक व्रत को स्वीकार किया है उसका उत्तमरीति से पालन करना। ऐसा कहकर उस कुसुमप्रभ देव ने उस मृत सर्प की काया को गिरीगुहा में से बाहर लाकर नंदिवृक्ष पर लटका दिया और कहा कि हे लोगों!
(गा. 674 से 678) जो कोई किसी पर क्रोध करेगा तो उसके फल से जैसे मैं कर्पर तापस सर्प बना वैसे ही इस प्रकार सर्प बनेगा। उन तापसों का कुलपति जो पहले से ही समकितधारी था, वह भाग्योदय से इस समय परम वैराग्य को प्राप्त हुआ। उन तापसों के अधीश्वर ने केवली भंगवत को नमन करके वैराग्य वृक्ष के उतम फलस्वरूप चारित्र धर्म की याचना की। केवली बोले- तुमको यशोभद्रसूरि व्रत देंगे। समता रूपी धनवाले ये मुनि मेरे भी गुरू हैं। तब अंतर में विस्मय प्राप्त हुए कुलपति ने केवली को पूछा- हे भगवन्! कहिए आपने किस लिए दीक्षा ली थी। केवली बोले- कोशला नगरी में नलराजा के अनुज बंधु कुबेर उतम वैभव संयुक्त राज्य करते हैं, उनका मैं पुत्र हूँ। संगा नगरी के राजा केशरी ने अपनी बंधुमती नाम की पुत्री मुझे दी थी। पिता की आज्ञा से वहाँ जाकर मैंने उससे विवाह किया उस नवोढ़ा को लेकर मैं अपने नगर की ओर आ रहा था। मार्ग में मानो मूर्तिमान कल्याण हो, ऐसे अनेक शिष्यों वाले गुरू को समवसरित हुए देखा, तब वहाँ जाकर मैंने परम भक्ति से उनकी वंदना की एवं कर्ण में अमृत की प्याउ जैसी उनकी धर्मदेशना मैंने सुनी। देशना के अंत में मैंने पूछा कि मेरा आयुष्य कितना है? तब उन्होंने उपयोग देकर कहा कि मात्र पाँच दिन का आयुष्य है। इस प्रकार मरण नजदीक जानकर मैं भय से कंपायमान हो गया कारण कि सर्व प्राणियों को मृत्यु का भय बड़े से बड़ा है।
(गा. 679 से 690) सरि बोले- वत्स! भयभीत मत हो। मनि जीवन ग्रहण कर। एक दिन की दीक्षा भी स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती है। तब दीक्षा लेकर उनकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ, यहाँ शुक्कू ध्यान में स्थित होने से मेरे घातिकर्मों का क्षय होने से मुझे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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