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उस गिरी के पाषाणों से टकराता जीर्ण सीप के पड़ो के समान मेरे सारे दांत सहस्र प्रकार से विदीर्ण हो गये अर्थात दांत के टुकडे टुकडे हो गए दांत के टूटने से पीडातुर हो सात रात तक वहीं पड़ा रहा। परंतु दुखस्वप्न की तरह तापसों ने तो मुझ से बात भी नहीं की। जब मैं उनके स्थान से निकल गया तब घर में से सर्प निकल जाने के समान उन तापसों को विशेष सुख हुआ। इससे उन तापसों पर सुलगती अग्नि जैसा मुझे दुखानुबंधी क्रोध उत्पन्न हुआ। उस ज्वाजल्यमान क्रोध से दुर्लभ वाला मैं मृत्यु के पश्चात इसी तापसवन में एक विशाल विषधर सर्प हुआ। एक बार तुमको डंसने के लिए फण फैलाकर दौडा, तब तुमने मेरी गति को रोकने के लिए नवकार मंत्र पढा। जैसे ही मेरे कर्ण में नवकार मंत्र के अक्षर पड़े, तब जैसे मैं संडासी से पकड़ लिया गया होऊँ।
(गा. 658 से 664) ऐसे मैं तुम्हारी तरफ किंचित मात्र भी न चल सका। तब शक्तिरहित होकर मैंने एक गिरीगुहा में प्रवेश किया। वहाँ रहकर दादुर मेंढक आदि जीवों का भक्षण करके जीने लगा। हे परम आर्हती! एक बार बरसात बरस रही थी, तब तुम तापसों को धर्म कहते थे। उसमें मैंने सुना कि जो प्राणी जीव हिंसा करते हैं वे निंरतर विभिन्न योनियों में भ्रमण करते हैं और मरूभूमि के पथिक तो जैसे सदा दुख पाते रहते हैं यह सुनकर मैंने विचार किया कि मैं पापी सर्प तो हमेशा ही जीव हिंसा में तत्पर हूँ, तो मेरी क्या गति होगी? इस प्रकार विचार करके तर्क वितर्क करते पुनः मुझे याद आया कि इन तापसों को मैंने कहीं देखा है? उस समय मुझे निर्मल जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिससे मानो कल ही यह किया हो वैसे पूर्व भव का मेरा सर्व कृत्य याद हो आया। तब उछलते तरंगवाली नीक के जल की तरह मुझे अक्षय वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिससे मैंने तत्क्षण स्वंयमेव अनशनव्रत अंगीकार कर लिया। वहाँ से मृत्यु हो जाने पर मैं सौधर्म देवलोक में देवता हुआ। तप के केश को सहन करने वाले प्राणियों को मोक्ष भी दूर नहीं है। हे देवी! मैं कुसुमसमृद्ध नामक विमान में कुसुम प्रभ नाम का देव हुआ हूँ और आपकी कृपा से स्वर्ग के सुखों को भोगता हूँ।
__ (गा. 664 से 673) ___ यदि आपके धर्मवचन मेरे कान में न पडे होते तो पापरूप पंक में पडे वराह जैसी मेरी क्या गति होती? हे भद्रे! अवधिज्ञान से आपको मैं परम उपकारी
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)