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प्रास्ताविक
(थोडोक) विचार विस्तारथी केरीने आ प्ररूपणा सत्पदरुप अने स्वामित्वरुप होवाथी बाकीना द्रव्यप्रमाणादि अल्पबहुत्वसुधीना द्वारो सूक्ष्मताथी जाणवानी भलामण स्पष्ट रुपमा करी छे जेथी "संतपयपरूवणया दवपमाणं च" इत्यादि द्वारो कर्मविषयमा उतारवा-विचारवा भलामण करेल छे. आ ग्रंथने सूक्ष्मताथी विचारवाथी अनेक विषयोनो विस्तृत बोध थाय छे तेथी आ ग्रन्थ पण घणो उपयोगी होवाथी आजे आनुपण पठन पाठन सारा प्रमाणमां थाय छे.
आधार-पू. आ. श्री देवेन्द्रसूरि महाराजे पू आ. श्री शिवशर्ममूरि म० तथा श्री चन्दर्षि महत्तर आदि जुदा जुदा पूर्वाचार्यों कर्म-विषयक ग्रंथोनी रचना करी हती तेना आधारे पोते आ कर्मग्रंथोनी रचना करी छे. तेथी ते नव्य कर्मग्रंथ तरीके ओलखवामां आवे छे ___ नव्य कर्मग्रंथोनी टीका:-पू० आ० श्री देवेन्द्रसूरि महाराजे पोताना नव्य कर्मग्रंथो उपर स्वोपज्ञ टीका रची हती, पण कोइपण कारणे हालमा तेमना त्रीजा कमग्रंथ उपरनी स्वोपज्ञ टीका मलती नथी, एथी तेनी पूरवणी करवा माटे कोइ पूर्वाचार्य के जेमनु नाम टीकामा नथी तेओओ अवचूरी रूपे टीका रची छे. तेमणे अंतिम पदमां लग्व्युछे के
एतदग्रन्थस्य टोकाऽभत्, परं क्वापि न साऽऽप्यते । स्थानस्याशून्यताहेतो-रतोऽलेख्यवचूर्णिका टीकानी रचना शैली:-पू० आ० श्री देवेन्द्रमुरिजी म० नी स्वोपज्ञ टीकानी रचना एवी सुन्दर छे के मूल गाथाना कोइपण पद के वाक्यनु विवेचन रही जवा पामेल नथी, पदार्थो ने विशद रीते समजाववा माटे आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका वगेरेनां अनेक प्रमाणो, एक एक कर्मप्रकृतिनी शी शी विशेषता छ ? तेनी सुन्दर चर्चा (जुओ प्रथम कर्मग्रंथ गा० ३२ मां 'जाति' नाम कर्मनु शु प्रयोजन ? ए अंगेनी चर्चा) द्रव्य इन्द्रिय अने भाव इन्द्रियनु स्वरूप, द्रव्य मन अने भाव मन कोने कहेवाय ? एकेन्द्रियो पण भावथी पांचे य इन्द्रियोना विषयो जाणी शके (जुओ चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ६ नी टीका तथा प्रथम कर्मग्रन्थ गा० ३२ नी टीका) आदि विषयो सूक्ष्मद्रष्टिए अभ्यास करनारने महत्वपूर्ण सामग्री पूरी पाडे छे.
आ टीकानी भाषा सरल, सुबोध अने हृदयंगम होवाथी रुचिपूर्वक अध्ययन करनार सरलताथी कर्मतत्त्वना विषयनो सारो ज्ञाता बनी शके छे.
ग्रंथकारनो परिचय ग्रंथकर्ताः-स्वोपज्ञ टीकायुक्त नव्य पंच कर्मग्रंथना कर्ता पू० आ० श्री देवेन्द्र मूरि महाराज बृहत्तपागच्छीय आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वरजी महाराजश्रीना शिष्य छे.