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श्रीदादाजीकी वृच्च अष्ट प्रकारी पूजा. ७९३ देश मुलतान नग्रमें । बडा महोत्सव देख । अंबड और गन का श्रावग । गुरु से कीना देष ॥ पू० ॥ ३ ॥ अण हिलपुर पत्तन में आवो ॥ तो में जाएं सच्चा । बमो महोइव आयेंगे तूं । निर्धन होगा कच्चा ॥ पू० ॥ ४॥ पत्तन बीच पधारे दादा। सनमुख निर्धन आया । गुरु बतलाया क्यूंरे अंबम् । अहंकार फल पाया। पू०॥ ५ ॥ मनमें कपट कीया अंबाने । खरतर महिमा धारी । जहर दीया नन अशन पांनमें । गुरु विध जाणी सारी ॥ पू० ६॥ नण शाली मुखवर श्रावगसें । निर्विष मुद्री मंगाई । जहर नतारा तब लोकोंमें। अंबम निंद्या पाई ॥ पू०॥७॥ मरके बिंतर हुवा वो अंबम । रजो हरण हर लीना। नणसाली वितर वचनोसें । गोत्र नतारा कीना ॥ पू०॥८॥ सज्ज होय गुरु औघालेके । गोत्र वचाया सारा । झधिशार महिमा सद गुरुकी। दीपकका नजयारा॥ पू० ॥९॥ श्लोक ॥ अति सुदिप्तमय खलु दीपकैः । विमल कंचन जाजन शंस्थितै ॥ सकल०॥नक्षी पर दीपं निविपामिते स्वाहाः॥५॥॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ ॥अथ अदत पूजा ॥१॥
॥ दूहा ॥ अकृत पूजा गुरु तणी । करो महाशय रंग । ती न होवे अंग मे। जीते रण मे जंग।१।राग आसावरी ॥ अबधू सो जोगी गुरु मेरा ॥ ए चाल ॥ रतन अमोलख पायो सु गुरु शम । रतन अमोलख पायो । गुरु शंकट सबही मिटायो । सु०॥ए आंकणी ॥ विक्रमपुर नगरी लोकन कू। हेजा रोग संतायो। बहोत नपाय कीया शांतिक का।जरा फरक नही आयो । सु० र ०१ । जोगी जंगम ब्रह्म शंन्यासी । देवी देव मनायो। फरक नहीं किनही ने कीना । हाहाकार मचायो। सु० र० २ ॥ रतन चिंतामणि सरिषो साहिब । बिक्रमपुर में आयो। जैन संघ को कष्ट दूर कर जैजैकार वरतायो। सु० २०३॥ महिमा सुण माहेश्वर ब्राह्मण । सबही शीश नमायो। जीवत दांन करो महाराजा । गुरु तब यूं फुरमायो । सु०र० ४॥ जो तुम समकित व्रत को धारो। अबही करदूं नपायो । तहत वचन कर रोग मिटायो । आनंद हर्ष बधायो । सु० र० ५। जो कोई श्रावग व्रत नही धारयो पुत्री पुत्र चढायो । साधु पांच से दीदत कीना । साध वीयां समुदायो।
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