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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह.
गुण मणिके जेवरा ॥ श्रुत० ॥ ऐसें गुरुकी कीरत करके । सुमति धरो दिलमें गुण गेहरा ॥ श्रु० ॥ * ॥
॥ ॐ ॥
॥ ॐ ॥
॥ ॐ ॥ नितनमियै थिवर मुनीसरा नि० (ए चाल में ) ॥ * ॥ नितन मियै श्रुतधर मुनिवरा ॥ नि० ॥ रथे श्री जिनराज वखाणें । सुत्रे श्री गुरु गणधरा ॥ नि० ॥ १ ॥ मेघधुनी जिम नविजन सुकै । हरखे ज्युं केकी वरा ॥ नि० ॥ अंग इग्यारे गुण मणि धारक । बारै नपांग नजाग रा ॥ नि० ॥ २ ॥ जगत नधारण परमेशर । सकल विमल गुण आगरा ॥ नि० ॥ छेद पयन्ना नंदी सेवो । मूलसूत्र जवि गुण करा ॥ नि० ॥ ३ ॥ श्रुतधारी गोतम गुण दीवो। पूरब चन्द्र विद्याधरा ॥ नि० ॥ पहिलो आचारंग वखांणें । चरण करण गुण सुखकरा ॥ नि० ॥ ४ ॥ दूजो सुयग मांग सुखीजै । नेद तिशय तेसहखरा ॥ नि० ॥ तीजो गंणांगसूत्र विराजै । सुणतां पापमिटैपरा ॥ नि० ॥ ५ ॥ चौथोसमवायांग सुहावै । अरथ अनेक करविरा ॥ नि० ॥ पंचमें जगवई महिमा करियै । सहसबत्तीश प्रशन धरा ॥ नि० ॥ ६ ॥ बडो ज्ञाता अंग सुध्यावो । धरमकथा कहै जिनवरा ॥ नि० ॥ सातमो अंग उपाशक कहिये । दशश्रावक प्रतिमा धरा ॥ नि० ॥ ७ ॥ आठ मांगे जिनवरदाखै। अंतगम केवलि मुनिवरा ॥ नि० ॥ नवमें अंगे विसु नधारो । अनुत्तरवाई शुभकरा ॥ नि० ॥ ८ ॥ प्रष्णविचार कया जिन द शमें। अंगुष्टादिक शुभतरा || नि० || अंगइग्यारमें जिनवर दाखें । कर्मबि पाक विविध परा ॥ नि० ॥ ९ ॥ वारमोअंग जिणंद बखां । प्रतिशय गु ण विद्याधरा ॥ नि० प्रकरश्रुत वलिसन्नी कहिये । सम्यकनेद अधि कतरा ॥ नि० ॥ १० ॥ सादिभेद सपरजव लहियै । गम्यकभेद सुणोनरा ॥ नि० ॥ अंगप्रविष्ट कहै जिनवरजी । नेदचवद सुणजो खरा ॥ नि० ॥ ११ ॥ इमजो श्रीश्रुतज्ञांन प्राराधो । जाव भगत कर बहुपरा ॥ नि० ॥ सुमति कहै गुरु ज्ञान राधो । बंबित पूरण सुरतरा ॥ नि० ॥ १२ ॥ ॥ ॥ की परमात्मने० श्रीश्रुतज्ञांनवारकेभ्यः चंदनं यजामहेस्वाहाः ॥ २॥ ॥ ॥ ॥ ॥ अथ ( ३ ) अवधिज्ञान धूपपूजा ॥ * ॥
॥ * ॥ ( दूहा ) ॥ * ॥ अगर सेव्हारस धूपसें । पूजो अवधि तदार |