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रत्नसागर, श्रीजिन पूजा संग्रह. .. ॥काव्यं ॥ जलधि जयनि प्रतिचीनाजयंती वापीततः। तन्मध्य दधिमुख जूनृऽच्चै त स्तथै वात्र समासतः जिनराज नुवनं शर्म सदनं कर्म शत्रु निकंदन। शेषनादिपत्कज पुनीतंमे नवतुनूयो वंदनं ॥१॥जी श्री ऽहं ॥४३॥
॥ * ॥ काव्यं ॥ अपराजितां नूराजितांजन पर्वता उत्तरजूवि । निर्म त्स्यकलकल्लोलकलिता द्योतयंती जुवोनुवि । नगमुख्य दधिमुख नदगमध्ये तपरि चैत्यालयै । षनादि बोधिदमयिकरोवि बोधिलान गुणाशये ॥१॥ अशी श्री हं० ॥४४॥ ॥ ॥
॥ (काव्यं ) रमणीयकांजन रसाधरतो रतिकरो धरणी धव । ईशा ननूमौ तस्यमोलौ विश्वपति गृहपुंगवः । तत्र तादृश तदाकारं ऋषना नृति कृपानिधिः। संस्मर्यचेतसि नमनलानं लने देव दयानिधिः ॥ १ ॥ नशी श्री ह ॥४५॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥१॥
॥ ॥ (काव्यं ) तत्साम्य प्रितीयो चला प्रितीये रतिकर युती मती सदा । सकल मंगलमाल दातरि दीनबंधु गृहे मुदा।ऋषनादि दीनानाथ सेवे प्रतिदिनत्वा प्रतिततः । तत्र जवनय पुःखनिकरा न्मुच्यतां मां प्रति यतः ॥१॥ झी श्री १०॥४६॥ ॥ ॥ ॥ ॥१॥
॥ ॥ काव्य। वहुल विदिशि विनतिसोयं रतिविनुवर गृहं । विश्वनूषण मखिलदूषण पुष्टधर्मति निर्गृहं । सद्भाव नावित नव्यनविजन व्यनीत रवी श्रमः । ऋषनादि पुरुषोत्तम पुनीतं जयंतु योहि नगोत्तमः ॥ १ ॥ नक्षी श्री ह० ॥ ४७ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥ ॥ काव्यं ॥अपर नूधर रूप सुंदर रतिकरे नत सुरनरे । विश्वेशविश द विहारधारे रत्नमय आनंदकरे । नाथ करुणाकर कृपालो श्रीश ऋषनादि प्रनो । त्वच्चरणसेवा सरण करणं दिशतु मांप्रतिहे विनो ॥ १ ॥ नक्षी श्रीह० ॥४८॥*॥ ॥ ॥ ॥ ॥ - ॥ ॥
॥ ॥ काव्यं ॥ हे नविजन नैति विदिशि । नगेंड रतिकरोपरि जि नालये । नविजन रुषनप्रति जिन । चंद्रमनिनौमि विशदाशये। ॥१॥ नक्षी श्री ई० ॥४९॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ॐ॥
॥ ॥ काव्यं ॥ हेरतिकर धन्यतमोऽसि । तदन्य आप्त निकेतन शोनित