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५९६ रत्नसागर, श्रीजिनपूजा संग्रह.
॥ ॥अथ आग्में श्रीचारित्र पद पूजा लि० ॥ ॥
॥ * ॥ (दूहा) अष्टमपद चारित्रनो । पूजो धरी नमेद । पूजत अ नुन्जव रस मिले । पातिक होय नछेद ॥ १ ॥ ॥ आराहिया खंमिश्र स कियस्स। नमो नमो संयम वीरियस्त। सज्जावणा संग विववियस्स । नि बाण दाणाइ समुऊयस्स ॥ वली शान फल ते धरीय सुरंग । निरासंसता शाररोध प्रसं गै। जवां बोध संतारणे यानतुल्यं । धरु तेह चारित्र अप्राप्त मूल्यं ॥६८॥ होइं जास महिमा थकी रंक राजा। वली प्रादशांगी नणी होइ ताजा । वली पाप रूपोपि नि:पाप थायै । थई सिघते कर्मनें पार जायै ॥६८॥ ॥ (ढाल)॥ ॥ चारित्र गुण वलि वलि नमो। तत्व रमण जस मूलो जी । पर रमणीय पणो टलै । सकल सिधि अनुकूलो जी। (चाल)। प्रतिकूल आश्रव त्याग संयम तत्व थिरता दममयी । सुचि पर म खंती मुनि दसेपद पंच संबर नपचयी। सामायिकादिक नेद धरमें यथा ख्यातै पूर्णता । अकषाय अकुलस अमल नज्वल कामकस्मल चूरणता ॥७० ॥ ॥ (ढाल)॥ ॥ देशविरतिने सर्व विरतिजे । ग्रहीयतिने अनिराम । ते चारित्र जगत जयवंतो। कीजै तास प्रणाम रे। (न० सि०) ॥७१॥ तृणपरै जेषदखम सुखमी। चक्रवर्ति पिण वरिन । ते चारित्र अख य मुख कारण । ते में मन मांहि धरिनरे (ज० सि०)॥७२॥ हुआ रांक पणे जे आदरि। पूजित इंद नरिंद । असरण सरण चरण ते बंई । वरिन ज्ञा न आनंदरे (न.सि.)॥७३॥ बारमास परजाइं जेहनें। अनुत्तर सुख अतिक्रमिई। शुक्ल सुकल अभिजात्यते परि । ते चारित्रनें नमीइं रे (न.सि० ) ७४॥चयते आठ करमनो संचय । रिक्त करै जे तेह । चारित्र नाम निरुक्त नाष्यु । तेबंधु गुण गेहरे (न० सि०) ७५ ॥१॥ (ढाल)॥ ॥ जाणि चारित्र ते आतमा । निज स्वन्नाव मांहि रमतो रे। लेश्या शुध अलंकरयो । मोहवने नवि जमतो रे। (वी तुमे०) ७६ ॥ ही प०॥ ॥ इति आठमी श्रीचारित्रपद कलश पूजा॥॥
॥॥ हिवै ९मी तप पद पूजा लि० ॥॥ ॥ॐ॥ (दूहा) करमकाष्ट प्रतिजालवा । परतिख अगनि समान । ते