________________
रत्नसागर. कीजै कामा । सोही काम हुवै अनिरामा । शांति जपी परदेश सिधावै । ते कुशले कमला लेई आवै ॥२॥ गरन थकी प्रनु मार निवारी । शांतिज नाम दियो महतारी । जेनर शांतितणा गुण गावै । रिधि अचिंती जेनर पावे ॥३॥ज्यांनरकों अनुशांति सहाई । त्यां नरकों काई आरत नाई। जो कबु बैठे सोई पूरै । दालिद्र पुष्ट मिथ्या मति चूरै ॥ ४॥ अलख निरंजन जोत प्रकाशी । घट घट जीतरके प्रनु वासी । स्वामि स्वरूप कह्यो नहिं जावै । कहतां मोमन अचरज आवै ॥५॥ मारदिये सबही हथियारा। जीता मोहतणा दलसारा । नारतजी शिवसुं रंगराचे । राजतजी पिण सा हिब साचे ॥६॥ महाबल वंतज कहिये देवा । कायर कुंथुन एक हणेवा। शधिसयल प्रनु पाश कहीजे । निदा आहारी नाम नणीजै ॥७॥निं दक पूजक है समजायक । पिण सेवकही कों है सुखदायक । तज्यो परिय हतें जगनायक । नाम अतीत सबे बिधलायक ॥८॥ शत्रु मित्र समचित्त नणीजै । नामदेव अरिहंत नणीजै । सयलजीव हितवंत कहीजै। सेवक जाण महापद दीजै ॥५॥ सायर जैसा होय गंजीरा । दोष नहीं इक मां ह सरीरा । मेरुअचल जिम अंतर जामी । पिण न रहै प्रनु एकण ठामी॥ १०॥ लोक कहै जिनजी सहु देखे । पिण सुपनो कबहु नविपेखे । री सविना बावीस परीसह । सेन्याजीती ते जगदीसह ॥११॥ मान विना जग आण मनायो। माया विना सबसुं लय लाई । लोन विना गुण राशि ग्रहीजै । निकु नए त्रिगमो सेवीजै । निग्रंथपणे शिर उत्र धरावै । नाम जती पिण चवर ढोलावै । अन्नयदान दाता सुख कारण । आगल चक्र च लै अरिदारण ॥१२॥ श्री जिनराज दयाल नणीजै । करम सबे कोही मूलखणीजै। चोवीह संघज तीरथ थापै । लघणी देखै प्रनु आपै ॥१४॥ विनयवंत नगवंत कहावै ॥ नां काऊकों शीश नमावै । अकिंचनको विरुध धरावै । सोपद पंकज आतम ठगवै ॥१५॥ तजतरुणी निज गुणकों ध्या वै। शिवरमणीकों साथ चलावै । रागनही पिण सेवककों तारै । देष नहीं नि गुणा संगवारे ॥१६॥ तेरी महमा अदभुत कहियै । तेरा गुणको पार न लहियै । तुं प्रनु समरथ साहिब मेरा । हुं मनमोहन सबके तेरा ॥१७॥