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श्रीआदीश्वर धुलेवानाथ लावणी.
॥ ॥ मोतिदाम बंद ॥ ॥ ॥ ॥ तुंही अरिहंत तुंही जगवंत । तुंही जिनराज तुंही जगसंत । तुंही जगनाथ तुंही प्रतिपाल । तुंही मनमोहन तुंही दयाल ॥ १ ॥ तुंही जवनंजन नाव सरूप । तुंही अरि गंजल रंजन नूप । तुंही अविनासी तुं ही वीतराग । तुंही महाराज तुंही वमनाग॥२॥ तुंही गुणधाम तुंही विस राम। तुंही नवनिधि तुंही वमनाम । तुंही अघनाश तुंही अविनाश । तुंही मतिवंत तुंही मतिवास ॥३॥ तुंही गुन केवल रूप अनंत । तुंही जगतारन तारन संत । तुंही जगध्येय तुंही जगध्यान । तुंही चिद्रूप तुंही जग जा न॥४॥तुंही मम तात तुंही मम मात । तुंही मम भ्रात तुंही मम गत तुंही सरणागत राखण हार । तुंही मुख दोहग टालणहार ॥५॥१॥
॥॥ लावणीकी चाल में॥ ॥ ॥ ॥ करूं अरज एक तोपें जिनपति । कंत कुष्टसें नहीं डरते ॥ पूरब करमके लिखित लेख जे। किसके टारे नहीं टरते ॥१॥ पण तुझ शासन ज गत हेलना । जगत ढंढेरा बाजत है। आप कर्म अरु जैन धर्मके । फल पाईयें यो लाजत हे॥२॥ यो मुख मोसें सह्यो जात नहीं। आदिनाथ जग रखपा ला। करुना करके रोग निवारन । गुन कीजें जग प्रतिपाला॥३॥यह प्रस न होय फल बीजोरो। हाथ तणो फल तब दीनो । मयणा तब नवास नई । मन चिंते सव कारज सीनो॥ ४ ॥ तोदिन नमण नीर तनु फरसे कुष्ट रोग सब नासत हे । कामदेव अरु अमर समोवम । नृप श्रीपाल सोहावत हे ॥५॥ या कीरत प्रनु तिहारी नूतल । प्रगट प्रबल हे जश सेरो। बासू चैत्र मासमें महिमा। देश देशमें प्रनु तेरो ॥ ६॥ फिर वागम देश वमोद नगरमें । जगपर प्रनु करुना कीनी । कितने वरश लग महीमा महिमा । अविचल नूतल रिच दीनी ॥ ७ ॥ दिल्लीपर तुरकान नयो तब । पादशाह लमवा आयो। बूत चूत पथ्थरकी मूरत । जम मुलांसें नखरायो ॥ ८॥ बहुत दिनां लग कीवी लराइ । थाको यों वाचा बोले । देव हिंदको बमो जागतो। युं बोलत फिर फिर मोले ॥ ९॥ सुनो बात काजी मु खां तुम । एक बातसें त्रासँगा । गौ ब्राह्मण प्रतिपाल कहाई। गोवधसें