________________
४२६
रत्नसागर.
रे (एचाल ) ॥ ॥ सोलह देश तणी सहीरे । दाहक संगति वखाण । तेह लबधि तेवीसमीरे । तेजोलेश्या जाण ॥ १५ ॥ ( चतुरनर सुख ज्यो ए सुविचार ) | आगम अधिकार । वारू लबधि विचार ( च० ) चवदह पूरब धर मुनिवरुरे । नपजन्ता संदेह । रूप नवो रचि मोकलै रे । लबधि आहारक एह ( च० ) || १६ || तेजोलेश्या अगनिनें रे । उपशम वा जल धार। मोटी लबधि पचवीश मीरे । शीतो लेश्या जांण ( च० ) ॥ १७ ॥ जेण सगति सुं विकुर्वै रे । विविध प्रकारै रूप | सदगुरु कहै बावीसमी रे । वेक्रिय लबधि अनूप ( च० ) ॥ १८ ॥ एकणपात्रे आदमी रे । जीमावै केई लाख । तेह प्रवीण महाणसी रे । सत्तावीसमी साख ( च० ) ॥ १९ ॥ चूरै सेन चक्कीसनीरे । संघादिकनें काम । तेह पुलाक लबधि कही रे ।
हावीशमी नाम ( च० ) ॥ २० ॥ तेज शीत लेश्या बिहुँरे । तेम पुलाक विचार | भगवती सूत्रमें जाषियो रे । ए त्रिहुंनो अधिकार ( च० ) ॥ २१ || पन्नवणा आहारनी रे । कलपसूत्र गणधार। तीन तीन इक २ मिली रे । वारू आठ विचार ( च० ) ॥ २२ ॥ प्रष्ण व्याकरणें कही रे । बाकी लबधां वीश । सांजलतां सुख ऊपजै रे । दोलत हुवै निशि दीश ( च० ) ॥ २३ ॥ * ॥ ( कलशः ) ॥ ॥ संवत्त सतरैसै बवी मेरु तेरस दिन जलै। श्रीनगर सुख कर लूणकरणसर यदि जिन सुपसावलै । वाच ना चारज सुगुरु सांनिध विजय हरष विलासए । श्रीधर्म वर्धन स्तवन ज तां प्रगट ग्यान प्रकाश ए ॥ २४ ॥ इति ( २८ ) लब्धि स्तवनं ॥ ॥ अथ हाईस लब्धि तप विधिः ॥
॥
॥ * ॥ ( शुभदिन ( गुरुके पास ) । २८ लब्धि तप ग्रहण करे । अ नुक्रमसें २८ उपवास करे । स्तवन सु । ( जिस दिन ) जो लब्धी को नृपवास होय । नसी लब्धी कै नामको गुणनो करै । तप पूर्ण होनें सें । श क्ति माफक उद्यापन करै । यह तपस्या करनेंसें निर्मल बुद्धि नृत्पन्न होय | सदा आनंद रहे । इति २८ लब्धि तप विधिः ॥ ॥
थ १४ पूर्व स्तवन लि० ॥
॥ * ॥ ॥ ॥ (ढाल ) ॥
॥
॥ बेकर जोगी तांम (एचाल ) । जिनवर