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रत्नसागर. ॥ * ॥ पुनः वसंत होरी॥ * ॥ ॥ ॥ यादव मनमेरो हरलीयोरे॥ (या० )॥ संजम दूती कान लगी जब । शिवनारीपर चित्त दीयोरे॥(या०)॥१॥ तोरणथी रथ फेर चले हो । नवनव नेह अलग कीयोरे॥ (या०) ॥ २ ॥ मोह गेम गिरनार सिधाए । नेमि जिणंदनें कहा कीयोरे ॥ (या०)॥ ३॥ तुमहो तीन नु वनके साहिब । सुरनर कहै तुमे चिरंजीयोरे ॥ ( या० )॥ ४॥ वारवार मेरी वंदना हुयज्यो। चंद कहै मन हरखीयोरे॥ (या०)॥५॥ इतिपदं ॥४॥
* ॥ पुनःवसन्त होरी॥ॐ॥ ॥ ॥इक सुणले नाथ अरज मेरी ( इ० )॥ १॥ इह संसार गहर तर सिंधु । जमर पम्त जिहां नवफेरी ( इ० ) ॥ २॥ क्रोधादिक बहु मगर मन है । ग्रहत जंतु नकरत देरी ॥ (३०)॥३॥ ऐसे जलधिसें पार करो तो। तारण तरण विरुदतेरी ॥ ( इ० ) ॥ ४॥ धरम जिनेसर जग परमेशर । दूरकरो मुखकी बेरी ॥ ( इ० ) ॥ ५॥ परम कमागुण दायक , लायक । अनुपम कीरति जगतेरी॥ (३०)॥६॥ इति पदं॥ ॥॥
॥ॐ ॥ पुनः होरी॥॥ ॥ ॥सांवरो सुखदाई । जाकी उवि वरणि न जाई । ( आंकमी)। श्री अश्वसेन वामानन्दनकी । कीरति त्रिभुवन गई । समेत सिखर गिर समन प्रनुको । देख दरश हरखाई । हृदय मेरो अति हुलसाई ( सांव० ) ॥ १ ॥ आज हमारे सुरतरु प्रगट्यो । आज आनन्द बधाई। तीन जुवन को नायक निरख्यो । प्रगटी पूर्ब पुण्याई । सफल मेरो जनम कहाई ॥ (सांव० )॥ २ ॥ प्रनुके सरस दरश विन पाये । नव नव नटक्योमें नाई अब तेरो चरण शरण चित चाहत । वाल कहै गुण गाई । प्रजुजीसें लगन लगाई (सां० )॥३॥ इति पदम् ॥ #॥
॥ ॥ पुनः रागिणी बसन्त ।। ॐ ॥ ॥ ॥ नेना हरखाइ । आज तेरी मूरत निरखी ॥ ( ३० )॥ नवनव संचित पाप करम सब । देखत दूर पुलाई । सुमति वधारण कुमति विमा