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३.२०
रत्नसागर.
हिरा । परघर कम्मकरं ॥ १ ॥ जव बीजांकुर जनना । रागाद्याःदय मु पागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा । हरो जिनोवा नमस्तस्मै ॥ १ ॥ इति ॥ ॥ ॥ अथ सदाके देववंदनमें (तथा) दशमें दिन । नदी पारणकी विधिमें कहका ( चै० ) ( स्त० ) थुई लि० ॥ ॐ ॥
॥ ॐ ॥
॥ * ॥ नवपद चैत्यवंदन ॥ ॥
॥ ॐ ॥ जो घुरि सिरि अरिहंत मूलदढ पीढिपइनि । सिद्धि र नव काय साहु चिहुंसाहगरिठिन । दंसण नाण चरित्त तवहिं परसा सुन्द रू । तत्तक्खर सर वग्ग लधि गुरुपय दल मंबरू । दिशिवाज जक्ख जक्खणी मुह सुर कुसुमेहिलंकियन । सो सिङ्घचक गुरुकप्पतरु अझ मम वंटि यदिय ॥ १ ॥ * ॥
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॥ * ॥ पुनः नवपद चैत्यवंदन लि० ॥ ॥ श्री अरिहंत उदार कांति । प्रति सुन्दर रूप । सेवो सिद्ध नन्तशांत । तम गुण नूप ॥ १ ॥ आचारज नवजाय साधु । शमता रस धाम । जिनभाषित सिद्धांतशुद्ध । अनुभव अभिराम ॥ २ ॥ बोधबीज गुण संपदाए | नाण चरण तव शुद्ध । ध्यावो परमानन्दपद । ए नवपद प्रवि रु६ ॥ ३ ॥ इह परभव आनन्द कंद | जगमांहि प्रसिधौ । चिंतामणि समजास जोग । बहु पुण्यै लौ ॥ ४ ॥ तिहु प्रण सार अपार एह महिमा मनधारो | परिहर परजंजाल जाल । नित एह संजारो ॥ ५ ॥ सिधचक्र पदसेवतां । सहजानन्द स्वरूप | अमृतमय कल्याण निधि । प्रगटे चेतन जूप ॥ ६ ॥ इति श्री सिधचक्र नमस्कार संपूर्णम् ॥
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॥ ॐ ॥
॥ ॥ अथ नवपद वृद्धस्तवन लि० ॥ ॥
॥ * ॥ सुरमणी समसहु मंत्रमां | नवपद निरामी रे लोय। (अहो नव ० ) करुणा सागर गुणानिधी । जग अंतरजामीरे लो० । (अहो जग ० ) ॥ १ ॥ त्रिभुवन जनपूजित सदा । लोकालोक प्रकासी रे । लो० (अहो लोका० ) । एहवा श्री अरिहंत जी । नमुं चित्त उल्हासीरे लो० । ( ० न० ) २ । अष्ट करम दलक्ष्य करी । थया सिद्ध सरूपी रे लो० । (प्र० थ० ) सि नमो जवि नावथी । जे अगम अरूपी रे लो० ( ० जे )