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रत्नसागर.
रमी चित्त विरमी पाप सर्व लोइनें । एकांत पूढे गुरु वतावै शक्तिवय तसु जो इनें । बिधएह करसी तेहतिरसी धरमवंत त धुरै। ए तवन श्रीश्रमसी ह कीधो चौपनें फल वधि पुरै ॥ ३० ॥ इति आलोयण स्तवन संपूर्णम् ॥ ॥ इहां क्रोधका सिज्ञाय प्रतिक्रमण विधमें विषप्राएहें ॥ ॥ * ॥ अथ मानकी सिज्ञाय लि० ॥ ॥
॥ * ॥ रेजीव मांन नकीजिये । मानें विनय नावैरे । विनय विना विद्या नहीं। तोकिम समकित पावेरे ॥ १ ॥ २० ॥ समकितविन चारित्र नहीं । चारित्र विण नहीं मुक्तीरे । मुक्तिना सुखडे सास्वता । तेकिम जहीई जुक्तीरे ॥२॥रे| बिनय बो संसारमा । जगमांहे अधिकारी रे । मानें गुणजाये गली । प्रा णी जोज्यो विचारी रे || ३ || मानकियो जो रावणें । ते तो रामें मारयोरे । रजोधन गरवै करी | अंतेवर ते हारयोरे ॥ २० ॥ ४ ॥ सुका लाकमा सारिखो। दुख दाई ए खोटोरे। उदय रतन कहै माननें । देज्यो तुमे देसो टोरे ॥ ३० ॥ ५ ॥ * ॥ इति मानकी सिझाय संपूर्ण ॥ ॥ *॥
॥ * ॥ अथ मायाकी सिज्ञाय लि० ॥ * ॥
॥ * ॥ समकितनूं मूल जाणीये जी । सत्य वचन साख्यात । साचा में समकित बसें जी । मायामां मिथ्यातरे ( प्रांणी मकरिस माया जगार ॥ १ ॥ मुख मीठी कुठे मनेंजी । कूम कपटनो कोट । जीनेंतो जी जी करै जी । चितमां ताके चोटरे ॥ प्रां० ॥ २ ॥ आप गरजें प्राघो पमै जी । पि न धरे विसवास । मनसुं राखे प्रांतरोजी । ए मायानो पासरे ॥ प्रा० ॥ ३ ॥ जेसुं बांधी प्रीतमी जी । तेसुं रहे प्रतिकूल । मयल नबंरे मन त गोजी । ए मायानो मूलरे ॥ प्रां० ॥ ४ ॥ तप कीधो माया करीजी | मि
सुं खैरे । मलि जिनेसर जाणजो जी । तो पाम्या स्त्री वेदरे प्रा० ॥ ५ ॥ नृदय रतन कहै सांगलोजी । मेलो मायानी बुद्धि । मुगति पुरी जावा तणोजी । ए मारगळे सुधरे ॥ प्रा० ॥ ६ ॥ ॥ ॥ * ॥ थ लोनकी सिझाय लि० ॥ ॥ * ॥ तुमे लक्षण जो ज्यो लोभनारे । लोनै जन पामें खोजनारे ।
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