________________
२७१
१४ गुणस्थान स्तवन. वन्हिलोचन वर्ष हर्ष धरी घणो । श्री विजय देव सूरींद पटधर विजय प्रनु मुर्णिदए । कीर्ति विजय वाचक सीस इण परि विनय कहै आणंदए ॥५८॥ इति पंच समवाय स्तवनं समाप्तम् ॥ ॥
॥ॐ ॥ १४ गुणठाणास्तवन लि.॥॥ ॥ ॥थंत्रणपुर श्रीपास जिणंदो। एचाल ॥ ॥ सुमतिजिणंद सु मतिदातार। वंडं मनसुध वारंवार । आणीनाव अपार । चवदै गुणथानक सुविचार । कहिस्युं सूत्र अरथ मनधार । पामें जिम नवपार॥ १॥ प्र थम मिथ्यात कह्यो गुणगणो । बीजो सास्वादन मन आणो । तीजो मि श्र वखाएं। चोथो अविरत नाम कहाणो । देशविरति पंचम परमाणो बहो प्रमत्त पिगणुं ॥२॥ अपरमत्त सत्तम सलहीजै । अहम अपूरब क रण कहीजै । अनिवृत्ति नाम नवम्म । सूखमलोन दसम सुविचार। उपशां त मोह नाम इग्यार । खीणमोह बारम्म ॥३॥ तेरम सयोगी गुणधाम । चनदम थयो अयोगी नाम । वरणं प्रथम विचार । कुगुरु कुदेव कुधर्म बखाण । तेह लवण मिथ्या गुणगण । तेहना पंचप्रकार ॥ ४॥ (ढाल २) सफल संसारनी ॥ * ॥ जेह एकान्त नय पक्ष थापी रहै। प्रथम एकान्त मिथ्यामती ते कहै । ग्रंथ नथापि थापै कुमति आपणी । कहै विपरीति मिथ्यामती ते नणी॥५॥ जैन शिव देव गुरु सहु नमें सारिखा । तृतीय ते विनय मिथ्यामती पारिखा। सूत्र नवि सरदहै रहै विकलप घणें । सं सयी नाम मिथ्यात चोथो नणें ॥६ ॥ समझ नही काय निज धंधरातो रहै । एह अज्ञान मिथ्यात पंचम कहै । एह अनादि अनंत अन्नव्यनें। करिय अनादि थिति अंत सुनव्यनें॥७॥जेम नर खीर घृत खमजीमनें वमें। सरस रस पाय वलि स्वाद केहवोगमें । चौथ पंचम के गण चढिने परौं। किणहि कषाय वसिाय पहिले अम॥ ८॥ रहै विच एक समयादि षट
आवली। सहीय सासादने थिति इसी सांगली। हिव इहां मिश्रगुण गण त्रीजो कहे । जेह नत्कृष्ट अंतर महुरत लहै ॥ ९ ॥ (ढाल ३ ) बेकर जोगीताम ॥ एहनी॥ * ॥ पहिला चार कषाय । शमकार समकिती। कैतो सादि मिथ्यामती ए । ए बेहिज लहै मिश्र । सत्य असत्य जिहां।