________________
पंचसमवाय स्तवन
२६९
२ दिशे नजाय । परवस मन माणस तणो जी । तृण जिम पूठे धाय रे ॥ २६ ॥ प्रा० ॥ नियत वसै विए चिंतयूं जी । आावी मिल ततकाल । वरसां सोनुं चिंतव्यो जी । नियम करै विसराल रे ॥ २७ ॥ प्रा० ॥ आठमो चकि सुमि तेजी । समुद्र पड्यो विकराल । ब्रह्मदत्त चक्री तणा जी । नयन हरै गोवाल रे ॥ २८ ॥ प्रा० ॥ कोकूहा कोयल करे जी। किम रा खीसरे प्राण । हेमी शर ताकीयो जी । ऊपर में सींचापरे ॥ २९ ॥ प्रा० ॥ आहेमी नागें कस्यो जी। बाण लग्यो सींचाण । कोकूहो नमी गयो जी। जो नियत परमाणरे ॥३०॥ प्रा० ॥ सत्र हराया संग्राम मांजी। रानपड्यां जीवंत । मंदिर मांहें मानवी जी । राख्याही नरहंतरे ॥ ३१ ॥ प्रा० ॥ (ढाल ४ राग मारुणी मनोहरणी ) ॥ ॥ काल स्वभाव नियत मति कूमी । करम करे ते थाय । करमें नरय तिरय नर सुर गति । जीव भवंतरे जाय ॥ ३२ ॥ (चेत न चेतयोरे करम न छूटै कोय ) ॥ करमें राम वस्या वनवासे । सीता पामी आल। कर्मै लंका पति रावणनुं । राज्य थयो विसराल ॥ ३३ ॥ चे० ॥ कर्मे कीमी कर्मे कुंजर । कर्में नर गुणवंत । कर्मे रोग सोग दुख पीमित । जनम जायै विलसंत ॥ ३४ ॥ ( ० ) कर्मे वरस लगे रिसहेसर । उदक न पा
अन्न । कर्में जिनमें जोन गिमारै । खीलारोप्या कन्न ॥ ३५ ॥ ० ॥ कर्मे एक सुख पालै वैसै । सेवक सेवै पाय । एक हय गय चढ्या चतुर नर । एक आगल कजाय ॥ ३६ ॥ ० ॥ नद्यम मानी अंधतणी परि । जगहीं मै हाहुतो । कर्म वली ते लहै सकल फल । सुख र सेजै सूतो ॥ ३७ ॥ चे० ॥ नंदर एकै कीधो नद्यम । करंमीयो करकोले । मांहे घणा दिवसनो भूखो । नागरह्यो मकोले ॥ ३८ ॥ ० ॥ बिवर करी मूषक तसु मुखमां दीये प्रापणं देह । मार्ग नही वन नाग पंधारया । कर्म मर्म जोवो एह ॥ ३९ ॥ चे० ॥ (ढाल ५ मी ) | ( तो चोढियो घण मान गजै एचाल ) ॥ * ॥ हिव नद्यम वादी नए एच्यारे प्रसमत्थतो । सकल पदारथ साधवा ए । नद्यम एक समरत्थतो ॥ ४० ॥ नद्यम करतां मानवी ए । स्युं नविसी काजतो । रामें रयणायर तणी ए । लीधो लंका राजतो ॥ ४१ ॥ करम नियतिनें अनुसरे ए । जेहमां सत्वन होयतो । देवल बाघ मुख पंखि