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बीरसुणो मोरीबीनती स्तवन.. २६१ हरो। अविचल सुख दातारोरे ॥ ज०॥१ मु० ॥ निजगुण नोक्ता पर गुण लोप्ता । आतम सगति जगायारे ॥ ज० अविनासी अविचल अविकारी शिववासी जिन रायारे ॥ ज० मु० ॥ इत्यादिक गुण श्रवणे निसुणी। हुँ तुम चरणे आयोरे॥ ज० ॥ तुम रीफावण हेतै ततखिण । नाटक खेलम चायोरे॥ ज०॥ ३ मु०॥ काल अनंत रह्यो एकेंद्री । तरु साधारण पा मीरे॥ज ॥वरस संख्याता वाल विकलेंद्री। वेषधरया मुख धामीरे॥ज ॥४॥मु०॥सुर नर तिरि वलि नरक तणीगति । पंचेंद्रीपणो धारयोरे ज० ॥चोवीसे दंडक मांहि नमियो। अबतो हुँ पिण हारयोरे॥ ज०॥५॥ सु०॥नवनाटक नितकरतो नवनव । हुं तुम आगलि नाच्योरे ॥ ज०॥ समरथ साहिब सुरतरु सरिषो । निरखी तुमने जाच्योरे॥ ज०॥६॥ मु०॥ जो मुझ नाटक देखी रीम्या । तो मुझ वंडित दीजैरे ॥ ज० ॥ जो नविरी ऊया तो मुझ भाषो । वलि नाटक नवि कीजैरे ॥ ज०॥७॥मु०॥लालच. धरि हु सेवा सारुं। तुं मुखडा नविकापरे॥ ज०॥ दातासेती सूंबनलेरो । बहिलो कतर आपरे॥ ज० ८ मु०॥ तुझ सरिषा साहिब पिण महारो। जो नवि कारज सारोरे ॥ ज०॥ तो मुझ करम तणी गति अवलो। दोस नकोई तुमारोरे॥ ज० ९ मु०॥ दीनदयाल दयाकरि दीजै । सुध समकि त सहिनाणीरे॥ ज०॥ सुगुण सेवकना वंबित पूरो । तेहीजगुण माणिखाणी रे॥ ज० १० मु० ॥ वर्ष अढारै गुणतालीसै । ज्येष्टसुदी सोमवारोरे॥ ज०॥ लालचंद प्रतिपददिन नेट्या। वीकानेर मझारोरे॥ ज०११ मु०॥॥ ॥ इति श्री शषन देवजी स्तवनं ॥१६॥ ॥ ॥ ॥ ॥
॥अथ श्री महाबीर वीनती लि०॥ ॥ ॥ वीर सुणो मोरी वीनती। कर जोमीहो कहुं मननी वात । बाल कनी परिवीनतुं । मोरा सामीहो तूं त्रिभुवन तात ॥१॥वी०॥तुम दरसण वि गहुँ जम्यो । नव मांहेंहो सामी समुद्र मकार । सुक्ख अनंता मैं सह्या । ते कहितांहो किमावै पार॥२॥ वी० ॥ पर नपगारी तुंप्रनु। उखजांजेंहो जग दीनदयाल । तिणतोरै चरणें हुं आवीयो । सामी मुझनेहो निज नयण निहा ल॥३॥वी० ॥ अपराधी पिण उधरया। तें कीधीहो करुणा मोरासाम ।