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રરૂ૮
रत्नसागर. य। रूवहि मयण अनंग करवि मेल्यो निरधामिय । धीरम मेरु गंगीर सिंधु चंगम चय चामिय ॥ ४ ॥ पेखवि निरुवम रूव जास जणजप किंचिय एकाकी किल नित्त इत्थ गुण मेख्या संचिय । अहवा निच्चय पुत्व जम्म जिणवर इण अंचिय । रंना पठमा गवरि गंग रतिहा विधि वंचिय ।। ५॥ नय बुध नय गुरु कविण कोय जसु आगल रहियो । पंचसयां गुण पात्र गत्र हीमेंपर वरियो । करय निरंतर या करम मिथ्या मति मोहिय । अण चल होस्ये चरमनाण देसणह विसोहिय ॥६॥(वस्तु) ॥ ॥ जंबूदी व जंबूदीव जरह वासंमि। खोणीतल मंगण । मगह देस सेणिय नरेसर। वरगुवर गाम तिहां। विप्प वस वसनूइ । सुंदर तमु पुहवि लजा। स यल गुण गण रूव निहांण । ताणपुत्त विजानिलो। गौयम अतिहि सुजाण ॥७॥ (जास)॥ चरम जिणेसर केवलनांणी। चोविहसंघ पश्छा जाणी। पावापुर सामी संपत्तो। चनविह देव निकायहि जुत्तो॥ ८॥ देवहि समवस रण तिहांकीजै। जिणदी मिथ्या मत गजै । त्रिनुवन गुरु सिंहासन बैग। ततखिण मोह दिगंतपइसा ॥९॥क्रोध मान माया मदपूरा । जायै नाठा जिम दिन चोरा । देवघुकुन्नी आगासे वाजी। धरमनरेसर आव्यो गाजी ॥१०॥ कुसम वृष्टि विरचै तिहां देवा । चठसठ इंद्रज मांगेसेवा । चामरन असिरोवरि सोहै । रूवहि जिणवर जगसह मोहै ॥ ११ ॥ नपसम रसन्नर वर वर संता। जोजनवाणि वखाण करंता । जाणवि वर्षमान जिण पाया। सुर नर किन्नर आवइराया ॥१२॥ कंत समोहिय जलहल कंता । गयण विमाणहि रण रण कंता। पेखवि इंद नूइ मनचिंते । सुरावे अम जज्ञ हुवंते ॥ १३ ॥ तीर तरंडक जिमते वहिता । समवसरण पुहता गह गहिता । तो अनिमाने गोयमजपै । इण अवसर कोपै तणुकंपै ॥१४॥ मूढा लोक अजाण्युं बोलै । सुर जाणंता इम कांइ मोलै । मो आगल कोइ जाण नणीजै । मेरु अवर किम अोपम दीजै ॥१५॥ (वस्तु) वीर जिणवर वीरजिणवर नांण संपन्न पावापुर सुरमहिय । पत्तनाह संसारता रण । तिहिं देवइ निम्माहिय । समवसरण बहु मुक्ख कारण । जिणवर जग नजोयकरे । तेजहिकर दिनकार । सिंहासण सांमी ठव्यो । हुन तो