________________
१७६
रत्नसागर. ॥॥अथ श्री अनिनंदन जिन चैत्य वंदन ॥ ॥
॥ ॥जयंत विमान थकी चव्या । अजिनंदन राया। वैशाख शुदि चौथे माघ सुदि बीजे जाया।माहाशुदि वारशें ग्रहिय दिख्ख । पोषशुदि चनदस। केवल शुदि बैशाखनी । आठमे शिव सुख रस । चनथा जिनवरनें नमी ए॥ चन्गति भ्रमण निवार । ज्ञान विमल गणपति कहे। जिन गुणनो नही पार।।
॥ ॥ अथ स्तुति प्रारभ्यते॥॥ ॥ * ॥ अभिनंदन वंदो । साम्य माकंद कंदो। नृप संबर नंदो । घ र्षिता शेष कंदो । तम तिमिर दिणंदो । लंबनें वानरिंदो। जस आगल मंदो । सौम्य गुण सार दिंदो॥१॥इति थोय ॥४॥ ॥ ॥
॥॥अथ श्री सुमतिनाथ चैत्यवंदन॥॥ ॥ ॥ श्रावण शुदि बीजे चव्या। मेहलीने जयंत । पंचमी गति दाय क नमुं । पंचम जिन सुमति । शुदि वैशाखनी आठमें । जनम्या तिम सं जम । शुदि नवमी वैशाखनी। निरुपम जस शम दम । चैत्र इग्यारस ऊज ली ए । केवल पामें देव । शिव पाम्या तिणे नवमीयें । नय कहे करो तस सेव ॥१॥इति चैत्य वंदन ॥ ॥ॐ॥ ॥ ॥
॥॥अथ थोय प्रारभ्यते ॥४॥ ॥ॐ॥ सुमति सुमति आ पुःखनी कोमि कापे । सुमति सुजन व्यापे । बोधिनु बीज व्यापे । अविचल पद थापे । जाप दीप प्रतापें । कुमति कदही नावें । जो प्रनु ध्यान व्यापे ॥१॥इति सुमति जिन ॥५॥
॥अथ श्री पद्म प्रन चैत्यवंदन ॥४॥ ॥ ॥ नवम ग्रेवेयकथी चव्या। माहावदि कह दिवसें । कातीवदि बा रसे जनम । सुर नर सवि हरषे । वदि तेरस संजम ग्रहे । पद्मप्रन स्वामी चैत्री पूनम केवली । वलि शिवगति पामी । मृगशिर वदि इग्यारसें । रक्त कमल समवान । नय विमल जिन राजनुं । धरीयें निरमल ध्यान ॥१॥
॥अथ थोय प्रारभ्यते॥॥ ॥ * ॥ पद्मप्रनु सोहावे । चित्तमां नित्य आवे । मुगति वधु मनावे ।