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रत्नसागर.
पन्तिो नगवंत इंद्रमहिता)। प्रथम परमेष्टि । श्रीअरिहंत देवः। अष्टकर्म शत्रुकुंहणें (सो) अरिहंत कहिये । अरिहंत कैसे है । (जगवंतज्ञानवंत है । केवल ज्ञान केवल दर्शन संयुक्त है । (तथा) नगशब्दके १४ अर्थ है ॥ नगोऽर्क (सूर्य) १। झान २। महात्म ३ । यश ४। वैराग्य ५। मुक्ति ६। रूप ७। वीर्य ८। प्रयत्न ९ । मा १०६. श्रीलक्ष्मी ११ । धर्म १२ । ऐश्वर्य १३ । योनि १४। यह चवदै अर्थोमेंसें। सूर्य १ योनि २। दो अर्थ वर्जकर । १२ अर्थ नग शब्दका मिलै (जिससे) जगवंत कहियै (पुनः किंविशिष्ट ) फेर अरिहंत कैसे है ( इंद्रमहिता (चौसठ इंद्रोंकै पूजनीक । द्वादशगुणे करी विराजमान है (सो द्वादश गुण कैसे ) प्रथमतो अरिहंतको अद्भुतरूप । रोगादि रहित । प्रस्वेद मलादि रहित । सुगंध शरीर होय ॥१॥ सासोस्वासकी कमलजैसी सुगन्ध होय ॥२॥ लोही मांस गायके दूध जैसा सपेद होय ॥३॥आहारनीहारकी विधि अदृश्यहोय । प्राणी देख सक्ते नहिं ॥ ४॥ ए च्यार अतिसय गुणतो जन्मथकासे होय । (शेषप्राठगुण ) केवल ज्ञान नत्पन्न होणेसें प्रगट होय । (अशोकवृतः) जगवन्तके शरीरसें । बारै गुणो तुंचो अशोकवृत होय । जिसकी गयांबैठणेंसें रोगसोकादिक दूर होय ॥१॥ (सुरपुष्पवृष्टिः) देवगण पंचवर्ण फूलोंकी जानूपर्यंत वर्षा करै। आकाससे पडता सीधापडै विंटनींचै रहै । पंषडी ऊपर रहै ॥२॥ (दिव्यध्वनि) योजनपर्यंत । देवता । मनुष्य । तिर्यंच । सब जीव । अपणी २ जाषामें । यथावस्थित समऊ (जाणे) नगवंत मेरी भाषामें नपदेस देते है । (कहावी है ) एगाइं गिराणेगे । संदेह देहिणं समंडित्ता। तिहुअण म[सा संता । अरिहंता हुंतिमे सरणं ॥ १॥३॥ (श्वामर ४) नगवंतके दोनुं पासे इंद्रचामर ढालता रहे ॥ ४॥ (आसनंच ५) जगवन्तके बेठणेको । इंद्रादिक रचित । फिटक रत्नमई सिंहासण रहे ॥५॥ (नामंडलं ६) जगवन्तके पिगडी नामंडल रहे (जिसमें ) जगवंतके च्यार मुख । च्यारंदिश तरफ मालुम होय जगवंत तो पूर्वदिशा मुख कर बेठे । आरे तीन दिशमे । नगवन्तके प्रतिबिंब इंद्रादिक स्थापना