________________
नास्तिक-दर्शन
३६६
इस धर्म के सबसे प्राचीन प्राचार्यों ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार मागधी प्राकृत में किया। उनके लेख भी प्राकृत भाषा में ही संगृहीत हुए। जैनों के प्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्त या आगम हैं । जैनों का सबसे प्राचीन लेखक भद्रबाहु था । इस नाम के दो जैन लेखक थे, एक प्राचीन और दूसरा परकालीन । उन दोनों का समय क्रमशः लगभग ४३३-३५७ ई० पू० और लगभग १२ ई० पू० माना जाता है । इनमें से एक ने दशरूपात्मक तर्कपद्धति को जन्म दिया है । उसने दशवकालिकासूत्र की प्राकृत में टीका दशवैकालिकनियुक्ति नाम से की है। इसमें जैन-तर्कशास्त्र के सिद्धान्तों का वर्णन है । उमास्वाति ने प्रथम शताब्दी ई० में तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की रचना की। इसमें उसने तत्त्वों और उनके ज्ञान की पद्धति का वर्णन किया है। इस पर उसने स्वयं टीका भी लिखी है। सिद्धसेन दिवाकर (४८०-५५० ई०) ने ये ग्रन्थ लिखे हैं-(१) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका न्यायावतार और (२) जैन दर्शन विषय पर प्राकृत में सम्मतितर्कसूत्र । पाश्चात्य विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर का समय ७वीं शताब्दी ई० मानते हैं । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर पूज्यपाद देवनन्दी (५०० ई०) ने सर्वार्थसिद्धि नाम की एक टीका लिखी। ऐसा समझा जाता है कि पूज्यपाद और वैयाकरण जिनेन्द्रबुद्धि एक ही व्यक्ति हैं। समन्तभद्र ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका गन्धहस्तिमहाभाष्य नाम से की है । कुमारिल भट्ट (लगभग ६५०) ने इसकी आलोचना की है । अतः उसका समय ६०० ई० से पूर्व मानना चाहिए । इस टीका के प्रारम्भिक भाग को प्राप्तमीमांसा कहते हैं । अकलंक ने ये ग्रन्थ लिखे हैं--(१) सामन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा की टोका, (२) न्यायाविनिश्चय, (३) तत्त्वार्थवार्तिकव्याख्यानालंकार, (४) लघीयस्त्रय, (५) स्वरूपसंबोधन आदि । कुमारिल ( लगभ ६५० ई० ) ने इसका भी खण्डन किया है, अतः इसका समय ६०० ई० के लगभग मानना चाहिए । माणिक्यनन्दी (८०० ई०) ने प्रमाण विषय पर परीक्षामुखसूत्र लिखा है । प्रभाचन्द्र (लगभग ८२५) ई० ने दो ग्रन्थ लिखे हैं--(१) परीक्षामुखसूत्र की टीका प्रमेयकमलमार्तण्ड और (२) अकलंक के लघीयत्रय की टीका न्याय
सं० सा० इ०--२४