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नास्तिक-दर्शन
विद्यमान धर्म का सुधार किया । इस क्षेत्र में उससे पूर्व २३ - सन्त हो चुके थे, उनमें सन्त ऋषभ सबसे प्राचीन थे और वे ही जैन धर्म के सिद्धान्तों के जन्मदाता थे।
जैन लोग जीवात्मा को प्रकृति से पृथक् मानते है । वे जीवात्मा और प्रकृति दोनों को सत्य मानते हैं । जीवात्मा अनेक हैं। ये पुनर्जन्मवाद और कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जीवात्मा में ज्ञान है परन्तु वह पूर्व कर्मों के कारण प्रकाशित नहीं होने पाता । यह भौतिक शरीर पूर्व कर्मों का परिणाम है । यह जीवात्मा को उन्नति करने से रोकता है । अतः शरीर को 'आवरण' कहा जाता है । अतः शरीररूपी आवरण से छुटने का उपाय 'रत्नत्रय' अर्थात् रत्नतुल्य तीन कार्य हैं । वे तीन कार्य हैं--(१) सम्यग्दर्शन (२) सम्यग्ज्ञान और (३) सम्यक्चरित्र । सम्यग्दर्शन में जैन सिद्धान्तों पर विश्वास करना भी सम्मिलित है । सम्यग्ज्ञान में जैन आचार्यों के द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं का ठीक ढंग से समझना सम्मिलित है । सम्यक्चरित्र में आत्मा को बन्धन में डालने वाले पापों से निवृत्त होना सम्मिलित है । सम्यक्चरित्र का अभ्यास करने के लिए इन व्रतों का अभ्यास करना चाहिए--अहिंसा, सनत (सत्य और मधुर-भाषण), अस्तेय (चोरी न करना ), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (किसी की किसी वस्तु को न लेना) । इस मत में अहिंसा के अभ्यास को पूर्णता तक पहुँचा दिया गया है । इस मत की दीक्षा लेने वाला अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ने की अपेक्षा आत्महत्या करना अच्छा समझता है। इस धर्म में आत्म-संयम और वैराग्य पर अधिक बल दिया गया है । इन व्रतों के अभ्यास का फल मानवीय बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाना है। इस मुक्त अवस्था में आत्मा सांसारिक विषय-वासनाओं से सर्वथा मुक्त रहता है। उसके दुःख के सभी कारण पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं । बौद्धमत के तुल्य इस मत में आत्मा का नाश नहीं होता है, अपितु आत्मा आनन्दमय-स्वरूप को प्राप्त करता है। इस अवस्था को प्राप्त होने पर जीव को 'अर्हत्' कहते हैं । ये अर्हत् सर्वज्ञ होते हैं ।