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अध्याय २६
धर्मशास्त्र
भाव और अनुमान को दृष्टि से 'धर्म' शब्द विस्तृत है । प्राथमिक अर्थ तो यह है कि जो संसार को स्थिर करता है वही धर्म है । यह आचार, कर्तव्य, विधान, धर्म, न्याय, नैतिकता तथा अन्य अर्थों को सूचित करता है । मीमांसक इसे इस अर्थ में स्वोकार करते हैं कि यह एक ऐसा कार्य है जो आत्मा में 'अपूर्व' नामक फल उत्पन्न करता है । धर्मशास्त्र इसका प्रयोग कर्तव्य के अर्थ में करते हैं । वे कर्तव्य पाँच प्रकार के कहे गए हैं -- वर्णधर्म, आश्रमधर्म, वर्णाश्रनधर्म, नैमित्तिकधर्म तथा गुणधर्म । इनके आधार हैं - वेद, स्मृति और धर्म तथा अपने आचार जानने वालों की परम्पराएँ तथा व्यक्तिगत सन्तोष । धर्मशास्त्रों को स्मृति कहा जाता है । देखिए :--
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श्रुतिस्तु वेद विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः ।।
मनुस्मृति २-१० 'स्मृति' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की जा सकती है— स्मर्यते वेदधर्मोऽनेनेति ।
कल्पसूत्र वेदों के आवश्यक अङ्ग हैं । बाद में धर्मशास्त्रों में जिन विषयों का वर्णन किया गया है, उनके मूलभूत नियम इन कल्पसूत्रों में प्राप्त होते हैं । अतएव ये कल्पसूत्र धर्मशास्त्र के आधार हैं । कल्पसूत्रों की शाखा धर्मसूत्र हैं । इनमें धार्मिक और लौकिक कर्तव्यों का विवेचन किया गया है । धर्मसूत्रों में मनुष्य के दैनिक जीवन के लिए नियम बताए गए हैं । ये नियम क्रमशः विस्तृत होकर और अन्य सामग्री के साथ सम्मिलित होकर धर्मशास्त्र के रूप में परिणत हुए । इन ग्रन्थों के लेखन में रामायण, महाभारत और पुराणों से विशेष सहायता मिली है । इनमें से महाभारत में