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अध्याय २७ छन्दःशास्त्र और कोशग्रन्थ
छन्दःशास्त्र शांख्यायनश्रौतसूत्र, निदानसूत्र, ऋकप्रातिशाख्य और कात्यायन की अनुक्रमणियों आदि में वैदिक छन्दों का विवेचन किया गया है । श्रेण्यकाल में छन्दःशास्त्र का निरन्तर विकास होता रहा है । इस काल में छन्द को दो भागों में विभक्त किया गया था—वृत्त और जाति । वृत्त का नियमन गणों के द्वारा होता है। प्रत्येक गण में तीन वर्ण होते हैं। इन तीनों वर्गों में हस्व और दीर्घ के स्थान का अन्तर होने से आठ विभिन्न गण हो जाते हैं । इसमें प्रत्येक वर्ष में प्राप्त ह्रस्व या दीर्घ मात्राओं की गणना की जाती है। तदनुसार ही छन्दों में अन्तर होता है । ये छन्द दो प्रकार के होते हैं--सम और विषम । प्रत्येक श्लोक में चार पाद होते हैं। समवृत्तों में प्रत्येक पाद में वर्गों की संख्या समान ही होती है और विषम वृत्तों में प्रत्येक पाद में वर्गों की संख्या समान नहीं होती है। जाति छंदों में वणों की संख्या नहीं गिनी जाती है, अपितु मात्राओं की संख्या गिनी जाती है । प्रत्येक पाद में निश्चित मात्राओं की संख्या होनी चाहिए। इन छन्दों में निश्चित स्थान पर यति ( विराम ) होना चाहिए । महाभारत में भी वैदिक छन्द प्राप्त होते हैं । वैदिक काल का अनुष्टुप् छन्द ही श्रेण्यकाल में श्लोक हो गया है । वैदिक छन्दों में से बहुत से छन्द श्रेण्यकाल में लुप्त हो गये हैं और उनके स्थान पर कितने ही नये छन्द आ गये हैं।
वैदिक काल के पश्चात् इस विषय के सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं पिंगल या पिंगलनाग का छन्दःसूत्र तथा जयदेव का जयदेवछन्द । इसकी शैली वैदिक