________________
संस्कृत नाटक, उनकी उत्पत्ति, उनकी विशेषताएँ और उनके भेद
२१७
अधिक होते हैं । इसका नायक धीरललित होता है। इसमें शृंगार रस मुख्य होता है। इसमें केवल चार अंक होते हैं। रत्नावली इस प्रकार का उपरूपक है। सट्टक पूरा प्राकृत भाषा में होता है । भाषा के अतिरिक्त अन्य सभी बातों में यह नाटिका के ही तुल्य होता है । राजशेखर को कर्पूरमंजरी इस प्रकार का उपरूपक है। त्रोटक में पाँच, सात, पाठ या नव अंक होते हैं । इसका
आधार दैदी या मरणशील प्राणियों का क्रिया-कलाप है। विदूषक प्रत्येक अङ्क में उपस्थित रहता है । इसके उदाहरण में कालिदास के विक्रमोर्वशीय का नाम लिया जाता है । यह अज्ञात है कि इसे त्रोटक कैसे कहते हैं क्योंकि इसमें विदूषक प्रथम और चतुर्थ अंक में उपस्थित नहीं रहता । प्रेक्षणक एकांकी नाटक है । इसमें सूत्रधार नहीं होता । यह द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन करता है । किसी नीच नायक के चरित्र का वर्णन होता है। इसमें प्रवेशक और विष्कम्भ नहीं होता । बालिवध इसी प्रकार का एक नाटक है ।
प्राचीन समय में जो नाटक उपलब्ध थे, उनके आधार पर ही रूपकों मोर उपरूपकों के लक्षण बनाये गये होंगे और उनका इन दो भागों में विभाजन किया गया होगा। इनमें अन्य भेदों की अपेक्षा नाटक, प्रकरण, प्रहसन, भाण और नाटिका कहीं अधिक विख्यात हुए। इस पर भी, केवल नाटक ने ही श्रोताओं तथा आलोचकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। इसका प्रमाण यह है कि नाटकों की संख्या बहुत अधिक है और रूपक या उपरूपक के अन्य भेदों की संख्या बहुत ही कम है । परन्तु ऐसा ज्ञात होता है कि यह भेद जनता को प्रिय नहीं हुए, अतएव इन भेदों और उपभेदों के आधार पर आगे अधिक संख्या में नाटक-ग्रन्थ नहीं बने ।