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संस्कृत नाटक, उनकी उत्पति, उनको विशेषताएँ और उनके भेद २०७
अत: जीवन की वास्तविकताओं को कलात्मक रूप देकर प्रस्तुत करना पड़ा। अत: संस्कृत नाटकों को केवल आदर्शवादी नहीं कह सकते हैं ।
संस्कृत नाटकों का उद्देश्य प्रानन्द-प्रदान करना है, अत: उसमें दुःखद घटनाओं के मिश्रण के लिए स्थान नहीं है । दुःखित और शोकार्त व्यक्ति शान्ति चाहता है । दुःखान्त घटनाएँ उसको और दुःखित बनायेंगी । अतः संस्कृत नाटककारों ने ऐसी घटनाओं को स्थान नहीं दिया है । साथ ही हिन्दू प्राचारशास्त्र का सिद्धान्त है कि धर्म की विजय होती है और अधर्म की पराजय होती है । अतः उदात्त गुणों से युक्त नायक की पराजय नहीं होनी चाहिए
और न पापी की विजय ही होनी चाहिए । पापी पर जो विपत्ति या मृत्यु आदि ग्राती है, वह कर्मफल-सिद्धान्त के नियमानुसार उसके किये हुए कर्मों का ही फल है, अतः जनता की उसके प्रति सहानुभूति नहीं होती है । इसीलिए पापी का पतन दुःखान्त घटना नहीं है । तथापि संस्कृत नाटकों में बहुत-सी घटनाएं ऐसी हैं, जो दुःखप्रद और करुणाजनक हैं। उत्तररामचरित, वेणीसंहार
और नागानन्द आदि में इस प्रकार के दृश्य हैं। इस प्रकार के दृश्य रामायण, महाभारत तथा अन्य कथानकों में हैं, जहाँ से इनकी कथाएँ ली गई हैं। उनका प्रभाव नाटककारों पर अवश्य पड़ा है ।
यदि नाटककार अपनी असाधारण प्रतिभा से इनको सुखान्त न बना देते तो ये दृश्य इन नाटकों को दुःखान्त नाटक बना देते ।
इसका अभिप्राय यह नहीं है कि पाश्चात्य नाटकों की तरह संस्कृत नाटक पूर्णतया सुखान्त और पूर्णतया दुःखान्त नाटकों के रूप में विभक्त हैं । इन नाटकों में सुख, दुःख तथा अन्य भाव स्वतन्त्र रूप से मिश्रित हैं । इन नाटकों में हास्य का अंश विदूषक उपस्थित करता है ।
संस्कृत नाटकों में काल, स्थान और क्रिया सम्बन्धी संकलनत्रय का पूर्णतया पालन नहीं हुआ है । नाटक के दृश्यों के प्रदर्शन में उतना ही समय लगना चाहिए, जितना कि वास्तविक घटना के घटित होने में लगता है । इस