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संस्कृत साहित्य का इतिहास
कता का उदाहरण देते हुए बताया है कि कोई भी क्रिया तीन प्रकार से . वर्तमान काल का बोध कराती है । अभिनय, चित्रण और पाठ के द्वारा भूतकाल की क्रिया भी ठीक उसी रूप में प्रस्तुत करने पर वर्तमानता का बोध कराती है । भूतकालिक क्रिया का वर्तमान काल में होने का उदाहरण उन्होंने कंसवध और बलिबन्ध दिया है । इस उदाहरण से ज्ञात होता है कि पतंजलि (१५० ई० पू० ) के समय में नाटकीय अभिनय प्रचलित थे । हरिवंश में रामायण की कथा के अभिनय का उल्लेख आता है । उसमें कृष्ण के पुत्र ने राम का अभिनय किया था । हरिवंश का ही कहना है कि इन्द्र की उपस्थिति में नारद ने कृष्ण, बलराम, अर्जुन, सत्यभामा आदि के हाव-भावों का अनुकरण करके दिखाया । बौद्धों की नाट्य कला की ओर अभिरुचि थी । इससे ज्ञात होता है कि संस्कृत - नाटकों की उत्पत्ति केवल धार्मिक आधार पर ही नहीं है । अवदानशतकों में नाट्य-कला का निर्देश है । छोटा नागपुर के समीप सीताबेग गुफा के देखने से ज्ञात होता है कि वहाँ पर नाटकीय प्रदर्शन होते थे । इससे सिद्ध होता है कि ३०० ई० पू० से पूर्व उन स्थानों पर कविता का पाठ होता था, प्रणय गीतों का गान होता था और नाटकीय प्रदर्शन होते थे । अतः रामायण और महाभारत के समय में नाटकों की उत्पत्ति माननी चाहिये । इस समय के नाटकीय ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं ।
कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति यूनानी नाटकों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका मत है कि सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात् भारतीय राजद्वारों में यूनानी नाटकों का अभिनय प्रारम्भ हुआ । इसकी पुष्टि संस्कृत और यूनानी नाटकों में प्राप्त होने वाली समानता करती है । दोनों स्थानों के नाटक अंकों में विभाजित होते हैं । इनमें साधारणतया पाँच अंक होते हैं । प्रत्येक अंक के अन्त में अभिनेता रंगमंच से हट जाते हैं । रंगमंच पर विद्यमान अभिनेता आने वाले अभिनेता के प्रवेश की सूचना देता है । दोनों स्थानों के नाटकों में प्रेम-वर्णन समान है । दोनों स्थानों पर पात्रों का विभाजन उच्च, मध्यम और निम्न के रूप में है । संस्कृत नाटकों में
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