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संस्कृत साहित्य का इतिहास
को यह कथा सुनाकर पुन: अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त होगा । माल्यवान् को शाप दिया कि वह भी मनुष्य के रूप में उत्पन्न होगा और काणभूति से यह कथा सुनकर अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त होगा । तदनुसार पुष्पदन्त प्रसिद्ध वैयाकरण एवं नन्दराजात्रों के मन्त्री वररुचि के रूप में उत्पन्न हुआ । जीवन के अन्तिम समय में वह विन्ध्याचल के वन में गया और वहाँ काणभूति को यह कथा सुनाई तथा अपनी पूर्वावस्था को प्राप्त हुआ । माल्यवान् गुणाद्य के रूप में उत्पन्न हुआ और वह प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन का मन्त्री हुआ । राजा संस्कृत नहीं जानता था, अतः वह ग्रन्तःपुर में स्त्रियों में जाने में लज्जित होता था, क्योंकि उनमें से कुछ संस्कृत अच्छी तरह जानती थीं । उसने अपने राजद्वार के विद्वानों को इसलिए आमन्त्रित किया कि क्या वह संस्कृत कम से कम समय में और कम से कम परिश्रम से सीख सकता है । गुणाढ्य ने राजा को संस्कृत सीखने के लिए कम से कम ६ वर्ष का समय बताया । इस पर एक दूसरे विद्वान् शर्ववर्मा ने कहा कि वह राजा को ६ मास में संस्कृत सिखा सकता है । इस पर गुणाढ्य ने प्रतिज्ञा की कि वह साहित्यिक कार्यों के लिए संस्कृत का प्रयोग नहीं करेगा और उसने राजद्वार छोड़ दिया । वह वन में गया और वहाँ वह काणभूति से मिला तथा उससे वह कथा सुनी । उसने वह कथा पैशाची प्राकृत में लिखी । गुणाढ्य के शिष्यों ने यह ग्रन्थ सातवाहन को दिखाया, परन्तु उसने इसे देखना अस्वीकार किया । इस पर गणाढ्य ने यह ग्रन्थ वन की अग्नि में डाल दिया । उसके शिष्य ग्रन्थ का सातवाँ भाग बचा सके ।
संक्षेप में गुणाढ्य और उसके ग्रन्थ की यह कथा है । इस ग्रन्थ के संक्षिप्त ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि मूलग्रन्थ में कौशाम्बी के राजा उदयन के पुत्र नरवाहनदत्त के पराक्रमों का वर्णन था । नरवाहनदत्त अपने मित्र गोमुख के साथ पराक्रम के लिए वन में गया । उसने एक विद्याधर राजकुमारी मदनमंजुका से विवाह किया । एक विद्याधर मानसवेग मदनमंजुका को भगा ले गया । मानसवेग की बहिन वेगवती ने मदनमंजुका के पता चलाने में नर