________________
१६६
संस्कृत साहित्य का इतिहास
हैं । इसमें आर्या छन्द में पद्य होते हैं । प्राख्यायिका को उच्छ्रवास नामक उपविभागों में बाँटते हैं । इसमें वक्त्र और अपवक्त्र नामक छन्दों में श्लोक होते हैं । इसमें कुमारियों का हरण, युद्ध आदि दृश्य होते हैं । इसमें लेखक कुछ ऐसा चिह्न रखता है, जिससे यह पहचाना जा सके कि यह रचना अमुक लेखक की है । आख्यायिका आत्मकथा के रूप में होती है और कथा का वर्णन करने वाला लेखक भी हो सकता है तथा अन्य कोई भी हो सकता है । यह ज्ञात नहीं है कि कब यह अन्तर किया गया था। सबसे प्राचीन आलोचक दण्डी ( ७०० ई० ) ने इस अन्तर का उल्लेख किया है और इस अन्तर की हँसी उड़ाई है । उसने यह मत प्रकट किया है कि कथा और आख्यायिका में वास्तविक कोई अन्तर नहीं किया जा सकता है । ये दोनों ही गद्य साहित्य के एक विशेष प्रकार के विभिन्न नाम हैं । इन दोनों में जो अन्तर किया गया है, उसका पालन नहीं किया जा सकता है । जो ग्रन्थ अब तक प्राप्त हैं, उनके देखने से ज्ञात होता है कि इस अन्तर का पालन नहीं के बराबर हुआ है । अधिकांश में इस अन्तर की उपेक्षा ही की गई है । तथापि आलोचकों ने गद्य के उपर्युक्त दो विभाग किए हैं। यह प्रयन किया गया कि इन दोनों का यह अन्तर माना जाय कि आख्यायिका वास्तविक घटना पर निर्भर हो और कथा का विषय काल्पनिक हो । गद्य के आख्यान, परिकथा, खण्डकथा आदि कई भेद हैं । इनमें बहुत थोड़ा अन्तर है ।
पतंजलि के महाभाष्य ( १५० ई० पू० ), रुद्रदामन् के शिलालेख ( १५० ई० ) और हरिषेण ( ३४५ ई० ) के शिलालेख आदि से ज्ञात होता है कि श्रेण्यकाल के बहुत प्रारम्भिक काल से गद्य का प्रयोग होने लगा था । रुद्रदामन् और हरिषेण के शिलालेख बहुत सुन्दर और अलंकृत भाषा में लिखे गए हैं । इन दोनों शिलालेखों की शैली बाण आदि ( ७वीं शताब्दी ई०) की शैली से बहुत मिलती है । पतंजलि ने महाभाष्य में वासवदत्ता, सुमनोत्तरा और भैमरथी, इन गद्य-ग्रन्थों का उल्लेख किया है । इनमें से प्रथम