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संस्कृत साहित्य का इतिहास
यह संस्कृत, जिसको पाणिनि ने भाषा नाम से सम्बोधित किया है, बोलचाल को भाषा थी । इसके कतिपय प्रमाण मिलते हैं । पाणिनि ने वैदिक और लौकिक भाषा के लिए अपने नियम बनाए हैं। पतंजलि का कथन है कि व्याकरण का उद्देश्य यह नहीं है कि नए शब्दों का निर्माण किया जाय, अपितु शब्दों के शुद्ध प्रयोग की शिक्षा देना व्याकरण का उद्देश्य है। इस वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि व्याकरण से पहले बोलचाल की भाषा विद्यमान रहती है और उसी के लिए वैयाकरण व्याकरण के ग्रन्थों का निर्माण करते हैं । पतंजलि ने लिखा है कि बड़े-बड़े विद्वान् ऋषि भी 'यद् वा नः, तद् वा नः' इस शुद्ध प्रयोग के स्थान पर बोलचाल में यर्वाणः, तर्वाणः इस प्रकार के अशुद्ध प्रयोग करते थे, किन्तु यज्ञ आदि कार्यों में वे किसी प्रकार का अशुद्ध प्रयोग नहीं करते थे । पतंजलि का कथन है कि
एवं हि श्रूयते--यणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवः प्रत्यक्षधर्माणः परावरज्ञा विदितवेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः । ते तत्र भवन्तो यद्वा नस्तद्वा न इति प्रयोक्तव्ये यणिस्तर्वाण इति प्रयुञ्जते । याज्ञे पुनः कर्मणि नापभाषन्ते । (महाभाष्य १-१-१) इसके अतिरिक्त पतंजलि ने एक संवाद का भी उल्लेख किया है, जो कि सूत शब्द की व्युत्पत्ति पर एक वैयाकरण का एक सारथि से हुआ था । उसमें दिखाया गया है कि वैयाकरण शब्द के शुद्ध प्रयोग को ठीक नहीं जानता था और एक साधारण सारथि उसके शुद्ध प्रयोग को जानता था।' ऊष, तेर, चक्र, पेच आदि जैसे कतिपय शब्दों का विशेष अर्थ में प्रयोग होता था। पतंजलि ने यह भी उल्लेख किया है कि उस समय लोग कुछ शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करते थे, जैसे--शश के स्थान पर षष, पलाश के स्थान पर पलाष, मंचक के स्थान पर मंजक इत्यादि ।' पाणिनि और पतंजलि दोनों
१. महाभाष्य-२-४-५६ २. , -१-१-१ ३. , -१-१-१