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कालिदास के बाद के कवि
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मात्रा समं सावरजः स राज्ञा प्रस्थापितो धाम तपोधनानाम् । स्थानान्तरं विद्विषतां रणेषु
समर्थकोदण्डधरः प्रतस्थे ।।१७७।। वह अपने को वक्रोक्ति का प्राचार्य कहता है तथा वक्रोक्ति के आचार्य बाण और सुबन्धु की कोटि में अपने को स्थान देता है ।
सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयम् ।
वक्रोक्तिमार्गनिपुणाश्चतुर्थो विद्यते न वा ।। श्रीहर्ष के पिता का नाम हीर और माता का नाम मामल्लदेवी था । वह १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कन्नौज के राजा विजयचन्द्र और जयचन्द्र का आश्रित कवि था । उसने चिन्तामणि मन्त्र का जप किया और कई विद्याओं में विशेष योग्यता प्राप्त की । उसने कई ग्रन्थ लिखे हैं। उसके काव्य ग्रन्थों में से केवल नैषधीयचरित ही उपलब्ध होता है। ऐसा माना जाता है कि उसने यह महाकाव्य साठ सर्गों में लिखा था । उसमें से केवल २२ सर्ग अब प्राप्य हैं। उसने नल और दमयन्ती की कथा इसमें वर्णित की है । इसके २२वें सर्ग में यह कथा अपूर्ण प्राप्त होती है । यह महाकाव्य है। इसमें रस, अलंकार आदि के वर्णन में लेखक की मौलिकता परिलक्षित होती है। उसने साहित्य-शास्त्रियों के महाकाव्य-विषयक नियमों की उपेक्षा की है । कल्पनाओं की ऊँची उड़ान में वह सभी सीमाओं को पार कर जाता है। उसने अलंकारों के प्रयोग के लिए दर्शन और व्याकरण से उदाहरण लेकर अपनी विशेष योग्यता का परिचय दिया है । उसके इस महाकाव्य को शास्त्रकाव्य कह सकते हैं । उसकी शैली बहुत कठिन है और कोषग्रन्थों की सहायता के बिना हम उसका अर्थ नहीं समझ सकते हैं। अतः उसके लिए कहा जाता है-नैषधं विद्वदौषधम् । श्रीहर्ष ने अपने कला-कौशल की अभिव्यक्ति यमकालंकार में भी की है,
१. नैषधीयचरित, सर्ग १--१४५ ।