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छहढाला
- लाभ और पूजा-प्रतिष्ठा आदि की इच्छाको धारण करके शरीरको जलाने वाली नाना प्रकारकी क्रियाओं को करते हैं, जिनसे ज कि केवल शरीर ही क्षीण होता है, आत्माका कोई भी उपकार नहीं होता, उन सब क्रियाओंको गृहीत मिथ्याचारित्र जानना चाहिए। छहढालाकार पं० दौलतरामजी अपने आपको, तथा अन्य भव्य जीवों को संबोधन करते हुए कहते हैं कि हे आत्मन् ! अब तू इस जगज्जालके परिभ्रमणको त्याग दे, और अपनी आत्माके हितके मार्ग में लग जा और अपने आपमें मस्त हो जा । यही उक्त सर्व कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ - मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के विद्यमान रहते हुए मनुष्य चारित्रके नाम पर जो कुछ भी धारण करता है, व्रत नियम, उपवास आदि करता है, उसे गृहीत मिथ्याचारित्र कहा गया है । फिर जो क्रियाएं केवल शरीर को ही दुःख पहुंचाने वाली हैं, तथा मान-प्रतिष्ठा, यश कामना, अर्थलाभ आदि की इच्छासे की जाती हैं, त्रस - स्थावर जीवोंकी हिंसा करने वाली हैं, उनसे तो आत्म-हितकी कल्पना ही नहीं की जा सकती है, यही कारण है कि आचार्योंने ऐसी क्रियाओं को मिथ्याचारित्र कहा है | पंचाग्नि तपने में अगणित त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है, जटाजूट रखनेमें प्रत्यक्ष ही जूं वगैरह उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, शरीरको राख लगाने में, तिलक- मुद्रा आदि करने में मान-प्रतिष्ठा आदिकी भावना स्पष्ट ही दृष्टिगोचर होती है । तथा नाना प्रकारके आसन लगानेमें शरीरको खेदमात्रही होता