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दूसरी ढाल सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं रंक हूँ, मैं राजा हूँ, यह मेरा धन है, यह घर है, यह गाय-भैंस मेरी हैं, यह मेरा प्रभाव और ऐश्वर्य है, ये मेरे पुत्र हैं, यह स्त्री है, मैं सबल हूं, मैं निर्बल हूं, मैं सुरूप हूं, मैं कुरूप हूं, मैं मूर्ख हूं, और मैं बुद्धिमान हूं। कहनेका सारांश यह–कि कर्मोदयसे जब जिस प्रकारकी अवस्था जीव को प्राप्त होती है, मिथ्यादृष्टि जीव उसे ही अपने आत्माका स्वरूप समझकर वैसा मानने लगता है और उसीमें तन्मय हो जाता है । यही जीव तत्वका विपरीत श्रद्धान है।
विशेषार्थ-ऊपर जो जीवादि सात तत्व बतलाये गये हैं, उनका स्वरूप इस प्रकार है-चेतना या ज्ञान-दर्शन युक्त पदार्थको जीव कहते हैं, यह अरूपी है, क्योंकि इसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पुद्गलके कोई भी गुण नहीं पाये जाते हैं, इसी कारण जीव आंखोंसे न दिखाई देता है और न अन्य इन्द्रियोंसे ही जाना जाता है अतएव इसे अतीन्द्रिय भी कहते हैं। जिसमें चेतना नहीं पाई जाती है, उसे अजीव तत्व कहते हैं। इसके पांच भेद हैं--पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है उसे पुद्गल कहते हैं इन्द्रियोंके द्वारा दृष्टिगोचर होने वाला समस्त जड़ पदार्थ पुद्गल है। जीव और पुद्गलके चलनेमें जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्य-व्यापी सूक्ष्म, अरूपी पदार्थ धर्मद्रव्य कहलाता है । इसी प्रकार जीव और पुद्गलके ठहरनेमें जो सहायक होता है, ऐसा त्रैलोक्य-ब्यापी सूक्ष्म, अरूपी पदार्थ अधर्मद्रव्य कहलाता