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मथप्र ढाल
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कि वही जीव अपने आत्मस्वरूपकी पहचान कर सकता है जो बचपनमें निरन्तर विद्याभ्यास करता हुआ सद्-ज्ञानका उपार्जन करता है और जवानीमें न्यायपूर्वक धन उपार्जन व सत्- कार्यों में उसका उपयोग करता है, दान, पूजन शील-संयम आदिका यथाशक्ति पालन करते हुये जो अहर्निश संसारसे उदासीन रहता है, पुण्य-पापके फल में हर्ष-विषाद नहीं करता है और जो सतत आत्म-स्वरूपके चिन्तवनमें लगा रहता है । परन्तु जन-साधारण की प्रवृत्ति अनादि कालके संस्कार - वश आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंकी साधक सामग्री जुटानेमें ही लगी रहती है और इनके पीछे न्याय-अन्यायको कुछ नहीं गिनता है, अपनी स्वार्थमयी वासनाओं को पूरा करने के लिए दूसरोंके धन का अपहरण करता है, झूठ बोलता है, पराई बहू बेटियोंके साथ दुराचरण करता है और समय आने पर दूसरेका गला काटने से भी नहीं चूकता। इन सांसारिक प्रपंचोंमें ही फंसा रहनेके कारण उसे अपने आपकी कुछ सुध नहीं रहती कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा ? मेरा क्या स्वरूप है, मुझे क्या प्राप्त करना है और उसकी प्राप्तिका मार्ग कौनसा है, व उसके साधन कौनसे हैं ? जब तक मनुष्यके हृदयमें उक्त विचार जागृत नहीं होते हैं, तब तक वह आत्मउन्नति की ओर अग्रेसर ही कैसे हो सकता है ? इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़ा हुआ यह जीव मनुष्य पर्याय की तीनों अवस्थाओंको योंही व्यर्थ गवां देता है ।