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छहढाला
मगर, मच्छ, कच्छप, व्याघ्र, गिद्ध आदि का रूप धारण कर लेते हैं। जैसा कि तिलोय पत्ती में कहा है
: जलयर - कच्छप मंडूक-मयरपहुदीण विविहरूवधरा । गोभक्ते इतरिणि जलम्मि खारइया ॥ १ ॥
अ० २, गा० ३२६
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वय - वग्ध-तरच्छ-सिगाल - साग - मज्जाल - सीहपहुदीर्णं । अणोरणं च सदा तेणिय- यिदेहं विगुव्वंति ॥ २ ॥
० २, गा० ३१६
सूवर - बग्गि-सोणिद- किमि - सरि- दह - कूव वाइपहुदीणं । पुहुपुहरु विहीणा णिय यिदेहं पकुव्र्व्वति ॥३॥
अ० २, गा० ३२१
अर्थ- वैतरणी नदीके जलमें नारकी जीव कछुआ, मेंढक, और मगर आदि जलचर जीवोंके विविध रूपोंको धारण कर आपसमें एक दूसरे को खाते हैं ||१||
वे नारकी जीव, भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, श्वान, मार्जार और सिंह आदि के अनुरूप नई-नई अपने देहकी विक्रिया किया करते हैं ||२||
वे ही नारकी शूकर, दावानल तथा शोणित, (खून) और 'कृमि' युक्त सरित् (नदी) द्रह, कूप और वापी आदि रूप पृथक् पृथक् रूपसे रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते