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पांचवी ढाल -
१५७ . जो तेरा कभी साथ नहीं छोड़ता । वह परभवमें भी साथ जाता है और अन्तमें संसारके दुःखोंसे भी छुड़ा देता है, अतएव तू उसीकी शरणमें जा। ऐसा विचार करनेसे न तो स्वजनोंमें मोह उत्पन्न होता है और न परजनोंमें द्वष भाव जागृत होता हैं, किन्तु निःसंगता या एकाकीपना प्रगट होता है, जिससे कि यह आत्मकल्याणके ही लिये प्रयत्न करता है । ऐसा बार बार चिन्तवन करना सो एकत्वभावना है ।
अब आगे अन्यत्व भावनाका वर्णन करते हैं:जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, 4 भिन्न भिन्न नहिं मेला । तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिल सुत रामा।।७
अर्थ-जैसे जल और दूध मिलकर एकसे दिखने लगते हैं, पर यथार्थमें एक नहीं होते, इसी प्रकार मिले हुए यह जीव और देह भी यथार्थमें भिन्न भिन्न ही हैं, एक नहीं हैं। जब मिले हुये देह और जीव भी एक नहीं हैं, तब प्रत्यक्ष ही भिन्न दिखाई
* बन्धवो हि स्मशानान्ता गृह एवार्जितं धनम् । भस्मने गात्रमेकं त्वां धर्म एव न मुञ्चति ॥४३॥
क्षत्र० स० ११ • जीवस्स णिचयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो। सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ।।७।।
स्वामि० * सर्वार्थसिद्धि अ० ६ सूत्र ७ । . .