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- चौथी ढाल
१०५ हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दो देश-प्रयत्क्ष ज्ञान हैं, क्योंकि इनके द्वारा जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका परिमाण लिये हुए रूपी पदार्थोंको स्पष्ट जानता है ।
सकल द्रव्य के गुण अनन्त परजाय अनन्ता, जानै एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता । ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन, यह परमामृत जन्म जरा मृति रोग निवारन ॥३॥
अर्थ-केवली भगवान अपने केवल ज्ञानके द्वारा समस्त द्रव्योंके त्रिकालवर्ती अनन्त गुणों और अनन्त पर्यायोंको एक समयमें एक साथ प्रत्यक्ष जानते हैं । संसारमें ज्ञानके समान सुखका अन्य कोई कारण नहीं है । यह सम्यग्ज्ञान जन्म, जरा और मरण रूपी रोगके निवारण करनेके लिए परम-अमृतके समान है।
विशेषार्थ—सम्यग्ज्ञानके मूलमें दो भेद हैं--परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान । जो ज्ञान पांच इन्द्रिय और मनकी सहायता से पदार्थको जानता है उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं । इस परोक्ष ज्ञानके दो भेद हैं-१-मतिज्ञान और २-श्रुतज्ञान | पांच इन्द्रिय
और मन इन छहोंमें से किसी एकके द्वारा एक समयमें किसी पदार्थ का जानना मतिज्ञान है । जैसे स्पर्शन-इद्रियसे शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष आदि पदार्थको जानना, रसना-इन्द्रियसे खट्ट, मीठे, तीखे, चरपरे, आदि पदार्थको जानना, घ्राण-इंद्रियसे