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श्रावक जीवन-दर्शन / ३३७
राजा को बता दिया । स्वप्नफल के ज्ञाता राजा ने उसका फल बताते हुए कहा - "हे मृगलोचना ! तू भविष्य में जगत् में सारभूत कन्यायुगल को जन्म देगी, जिसका सर्जन कर विधाता की सृष्टि में प्रकृष्टता होगी ।" कन्यालाभ होने पर भी यह सुनकर वह बहुत खुश हो गयी । पुत्र हो या पुत्री, किन्तु जो श्रेष्ठ है, वह सभी को इष्ट है ।
क्रमशः वह गर्भवती बनी और उस गर्भ के प्रभाव से उसका शरीर पीला (पांडु) हो गया, मानों गर्भ के प्रभाव से उसने निर्मलता प्राप्त न की हो ! जल को गर्भ में रखने वाली मेघमाला श्याम हो जाती है, यह गर्भ में जड़ को रखने वाली नहीं है, अतः उसकी शुभ्रता युक्तिसंगत ही है ।
कीर्ति और लक्ष्मी को जन्म देने वाली श्रेष्ठ नीति की तरह उसने सुखपूर्वक पुत्री - युगल को जन्म दिया । राजा ने पहली पुत्री का नाम प्रशोकमंजरी और दूसरी पुत्री का नाम तिलकमंजरी रखा । मेरुपर्वत पर कल्पलता की भाँति पाँच-पाँच घाव मातानों से लालित-पालित वे दोनों क्रमश: बढ़ने लगीं। कुछ ही दिनों में उन्होंने सभी कलाएँ सीख लीं। बुद्धिसाध्य कार्य में बुद्धिमान् को विलम्ब कैसे हो सकता है ?
वसन्त ऋतु के आगमन से वन की शोभा में विशेष वृद्धि हो जाती है, उसी प्रकार नवयौवन के प्राप्त होने पर उनकी रूप- सम्पदा विशेष बढ़ गयी, मानों जगत् को जीतने के लिए कामदेव ने दोनों हाथों में उत्तेजित तलवारें धारण न की हों ।
सर्प तथा क्रूर ग्रह की दृष्टि की भाँति वे कन्याएँ तीनों लोकों को क्षुब्ध करती थीं, जिसका कोई प्रतिकार नहीं था । सुख-दुःख तथा प्रानन्द-विषाद में एक साथ रहने वाली, समान व्यापार वाली, सभी कार्यों में समान रुचि वाली, समान शील व समान गुण वाली उन दोनों में परस्पर परम प्रीति थी, यदि कोई उपमा दें तो केवल दो नेत्रों की ही उपमा उन्हें दी जा सकती थी ।
कहा है- एक साथ जगने वाली, एक साथ सोने वाली, एक साथ खुश होने वाली तथा एक साथ शोक करने वाली, दो आँखों की भाँति जिनका प्राजन्म निश्चल प्रेम है, उन्हें धन्य है ।
राजा ने सोचा- "इन दोनों के अनुरूप वर कौन होगा ? रति व प्रीति का एक ही पति कामदेव है, इसी भाँति इन दोनों के लिए भी एक ही वर की शोध करनी चाहिए। यदि इनका वर भिन्न-भिन्न होगा तो परस्पर विरह से मरण ही इनका शरण होगा। इन दोनों के उचित सज्जन युवा वर कौन होगा ? एक कल्पलता के भी कोई योग्य नहीं है तो फिर इन दो के योग्य कौन होगा ? अहो ! इन दोनों में से एक को भी ग्रहण कर सके, ऐसा कोई नहीं है । हाय ! कन्याजनक कनकध्वज अब क्या करेगा ? हाय ! योग्य वर की प्राप्ति के अभाव में निराधार लता की भाँति निर्भागी ऐसी इनकी क्या गति होगी ?"
इस प्रकार निरन्तर चिन्ता के ताप से संतप्त राजा के मास वर्ष की भाँति व वर्ष युग की भाँति बीतने लगे । शंकर की दृष्टि जिस प्रकार सम्मुख रहे व्यक्ति के लिए कष्टकारी होती है उसी प्रकार हाय ! धन्य भी कन्या पिता के लिए कष्ट ही देने वाली होती है ।
कहा भी है- "कन्या के जन्म के साथ ही (पिता को ) मोटी चिन्ता चालू हो जाती है। कन्या