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________________ श्राद्धविधि / ३०६ धारिणी नियुक्त कर दिया । वही तुम्हारी माता है, परन्तु रूप-स्वरूप आदि के भेद से भवान्तर को पायी हुई की तरह तुम उसे पहिचान नहीं सके । परन्तु उसने तु पहिचान लिया, फिर भी लज्जा व लोभ से वह कुछ नहीं बोली । 'अहो लोभ का यह कैसा प्रखण्ड साम्राज्य है ?' दुष्कर्म की सीमा को प्राप्त वेश्या इस पापकर्म को धिवकार हो, जहाँ माता अपने पुत्र को पहिचानने के बाद भी धन के लिए उसके साथ भोग करने की इच्छा करती है । पण्डित पुरुषों ने वारांगनाओं का समागम अहर्निश निन्दने योग्य और त्यागने योग्य कहा है । विषाद और विस्मित चित्तवाले उस श्रीदत्त ने कहा - "हे सर्वज्ञ भगवन्त ! यह सब वृत्तान्त उस बन्दर ने कैसे जाना ? हे मुनिवर ! साधु की तरह अन्धकूप में गिरते हुए उसने मुझे बचाया परन्तु वह मानुषी भाषा कैसे बोलता था ?" मुनिवर ने कहा--- "नगर में प्रवेश करते हुए तुम्हारे पिता सोमश्री का ध्यान करते हुए अचानक ही बारण के प्रहार से मरकर व्यन्तर हुए। चित्त में राग वाले वे एक वन से दूसरे वन में तब बन्दर के शरीर घूमते हुए भाग्ययोग से यहाँ आये और उन्होंने तुझे माता में प्रासक्त देखा । में प्रवेश कर इस प्रकार तुझे प्रतिबोध दिया । भवान्तर में जाने पर भी पिता पुत्र के हितकांक्षी होते हैं । "हे श्रीदत्त ! पूर्वभव के प्रेम के कारण तेरे पिता बन्दर के रूप में यहाँ आयेंगे और तेरे देखते-देखते ही तेरी माता को अपनी पीठ पर बिठाकर ले जायेंगे ।" मुनिवर इस प्रकार बोल ही रहे थे कि तभी वह बन्दर आ गया और अंबिका को अपनी पीठ पर आरोपित करने वाले सिंह की भाँति उसे अपनी पीठ पर आरोपित कर वेग से लौट गया । अहो ! मोह का यह कैसा नाटक है, संसार की यह कैसी विडम्बना है ! इस प्रकार बोलता हुआ और मस्तक धुनता हुआ श्रीदत्त अपनी पुत्री को लेकर घर चला गया । तब 'सुवर्णमाला कहाँ गयी ?' इस प्रकार अक्का के पूछने पर दासियों ने कहा - " ५०००० द्रव्य देने का स्वीकार कर श्रीदत्त उसे वन में ले गया है।" दासियों ने श्रीदत्त को किसी सुवर्णमाला को बुलाने के लिए उसने दासियों को भेजा । दुकान पर बैठे देख संभ्रमपूर्वक पूछा - "सुवर्णरेखा कहाँ है ?" श्रीदत्त ने कहा- "कौन जाने कहाँ गयी । क्या मैं उसका नौकर हूँ ?" / दोष की भण्डाररूप दासियों द्वारा यह बात कहने पर रोष से राक्षसी समान वह वेश्या राजा के पास गयी और - "हे राजन् ! मैं लुट गयी ! मैं लूट ली गयी !" इस प्रकार जोर से चिल्लाने लगी । राजा ने पूछा, "क्या बात है ?" दुःखी होकर उसने कहा - ' - "हे प्रभो ! सुवर्णरेखा मेरे लिए साक्षात् स्वर्णपुरुष समान थी । चौरचूड़ामणि श्रीदत्त ने उसका अपहरण कर लिया है।" 'उसकी चोरी हो गयी है - यह बात
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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