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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३०५ भयभ्रान्त बना सूरकान्त राजा भागकर कहीं चला गया। पापियों का जय कहाँ से हो ! पल्लीपति के भीलों ने हरिणी की भाँति काँपती हुई सोमश्री को पकड़ लिया। स्वेच्छापूर्वक नगर को लूटकर अपने नगर की ओर आते हुए भीलों के पास से वह सोमश्री भाग्ययोग से अचानक भाग निकली। जंगल में भटकती हुई उसने किसी वृक्ष का फल खा लिया, परिणामस्वरूप वह ह्रस्व अंग वाली और गौर अंगवाली हो गयी। मणि, मंत्र और औषधि की महिमा ही कुछ और है। मार्ग में जाते हुए कुछ वणिकों ने उसे देखा। आश्चर्यचकित होकर उन्होंने पूछा, "तुम कौन हो ! देवांगना हो, नागस्त्री हो, वनदेवता हो, स्थलदेवी हो या जलदेवी हो! तुम मानवी तो नहीं लगती हो।" उसने भी गद्गद होकर कहा-"मैं कोई देवी नहीं हैं। हे विद्वानो! मुझे मानवस्त्री ही स्वीकार करो। इस सुन्दर रूप ने ही मुझे दुःखसागर में डाला है। भाग्य के कष्ट होने पर मेरे लिए गुण भी दोष के लिए हो गया है।" "तुम हमारे पास सुखपूर्वक रहो" इस प्रकार कहकर वे खुश हो गये और वे भी गुप्त रत्न की तरह उसकी रक्षा करने लगे। उसके सुन्दर रूप आदि गुणों को देखकर प्रत्येक व्यक्ति उसके साथ शादी करने की इच्छा करने लगा। भक्ष्य को देखकर कौन भूख का अनुभव नहीं करता है ! कुछ समय बाद वे घूमते हुए सुवर्णकुल पर आ गये। नाना प्रकार की वस्तुएँ उन्होंने ग्रहण की क्योंकि वे इसी आशय से वहाँ आये थे। जो माल अच्छा और सस्ता मिलने लगा, वे उसे खरीदने लगे। व्यापारियों की यही रीति है जो वस्तु सस्ती मिले उस पर बहुतों की रुचि होती है। भोग्य फल के भोग से जिस प्रकार पूर्व का पुण्य नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पूर्व में बहुतसी वस्तुएँ ले लेने के कारण उनके पास थोड़ा भी धन नहीं था। तब उन्होंने धन को इच्छा से सोमश्री, वेश्या को बेच दी। मनुष्य को लोभ ही अधिक होता है और उसमें वणिक् को तो विशेष होता है। विभ्रमवती नाम की वेश्या ने एक लाख द्रव्य प्रदान कर उसे खरीद लिया। इस प्रकार की युवती तो कामधेनु के समान होती है। उस वेश्या ने उसका सुवर्णरेखा इस प्रकार नवीन नाम रख दिया। दूसरे घर में जाने पर स्त्री का दूसरा नाम हो जाता है। वेश्या ने बड़े परिश्रम से शिक्षा देकर उसे गीत, नृत्य आदि में निपुण बनाया। वेश्याओं का यही तो व्यवसाय है। क्रमशः वह भी मानों जन्म से ही वेश्या हो, इस प्रकार वेश्याकर्म में होशियार हो गयी। ठीक ही है-पानी जिसके सम्पर्क में रहता है, वैसा ही हो जाता है। ___ कुसंगति को धिक्कार हो। दुर्भाग्य से एक ही भव में उसके अनेक भव हो गये। अपनी सर्वांगीण निपुणता से उसने राजा को भी खुश कर लिया, जिससे राजा ने उसे अपनी चामर
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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