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पादलिप्त सूरि कृत प्रतिष्ठाकल्प में कहा है-जाप तीन प्रकार का
भाष्य ।
१. मानस जाप - जहाँ केवल मन की ही प्रवृत्ति है और जो स्व-संवेदनगम्य है, उसे मानस जाप कहते हैं ।
२. उपांशु जाप - जिसे दूसरे न सुन सकें किन्तु जो अन्तर्जल्पाकार हो, उसे उपांशु जाप
कहते हैं ।
श्राद्धविधि / १५
—मानस, उपांशु और
३. भाष्य जाप - जिस जाप को दूसरे सुन सकें, उसे भाष्य जाप कहते हैं ।
इन तीनों जाप में भाष्य से उपांशु और उपांशु से मानस जाप श्रेष्ठ तर है ।
शान्ति के लिए मानस जाप श्रेष्ठ है, पुष्टि के लिए उपांशु जाप श्रेष्ठ है और आकर्षण, मारण आदि कार्यों के लिए भाष्य जाप श्रेष्ठ है ।
मानस जाप प्रयत्नसाध्य है । भाष्य जाप का विशेष फल न होने से उपांशु जाप का प्रयत्न करना चाहिए ।
नवकार के पाँच पद और नौ पद की अनानुपूर्वी भी चित्त की एकाग्रता के लिए गिननी
चाहिए ।
'योगप्रकाश' के आठवें प्रकाश में कहा है- 'अरिहंत, सिद्ध, आयरिय. उवज्झाय, साहू'इन सोलह अक्षर की विद्या का दो सौ बार जाप करने से एक उपवास का फल मिलता है ।
मंत्र तीन सौ बार । पाँच सौ बार जो
'अरिहंत - सिद्ध' - इन छह अक्षरों का मंत्र चार सौ बार और अरिहंत के सिर्फ 'प्र' का उपवास का फल मिलता है ।
'अरिहंत' - इन चार अक्षरों का योगी जाप करता है, उसे एक
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में प्रवृत्ति के उद्देश्य से ही उपर्युक्त फल बताया गया है । वास्तव में, तो जाप का फल स्वर्ग और मोक्षप्राप्ति है ।
पंचाक्षर मंत्र जाप की विधि
नाभिकमल में 'विश्वतोमुखम् ' 'प्र' का ध्यान करना चाहिए । ध्यान करना चाहिए। मुखकमल में 'प्र' का ध्यान करना चाहिए । करना चाहिए और कण्ठ पिंजरे में 'सा' का ध्यान करना चाहिए ।
मस्तककमल में 'सि' का हृदयकमल में 'उ' का ध्यान
सर्वकल्याणकर 'अ सि प्र उ सा' - बीजाक्षर मंत्र और 'नमः सर्वसिद्ध ेभ्यः' मंत्राक्षरों का भी ध्यान करना चाहिए ।
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इस लोक में फल के इच्छुक को 'ॐ' कार पूर्वक और मोक्ष के इच्छुक को ॐकार रहित जाप करना चाहिए ।
इस प्रकार अरिहंतादि के ध्यान में लीन बनने के लिए मंत्र-विद्या के वर्ण और पदों में क्रम से विश्लेष करना चाहिए ।