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श्राद्धविषि/२७२
"जो मनुष्य जिनागम को स्वयं पढ़ता है, पढ़ाता है और पढ़ने वाले को वस्त्र, भोजन, पुस्तक आदि वस्तु द्वारा सहायता करता है, वह मनुष्य यहाँ सर्वज्ञ बनता है।"
केवलज्ञान से भी जिनागम की महत्ता विशेष दिखाई देती है। कहा भी है -"अहो ! श्रुत के उपयोगपूर्वक श्रुतज्ञानी यदि अशुद्ध भी भिक्षा ग्रहण कर लेते हैं तो उसको केवलज्ञानी भी खा लेते हैं। यदि ऐसा न करें तो श्रुतज्ञान अप्रमाणित हो जाता है।" --
"दुषमकाल के प्रभाव से तथा बारह वर्ष के भयंकर अकाल के कारण श्रुत (प्रागम) को नष्टप्राय: जानकर भगवान नागार्जुन और स्कन्दिलाचार्य आदि ने उसे पुस्तकारूढ़ कर दिया था। अतः श्रुत को आदर देने वाले व्यक्ति को वह श्रुत पुस्तक में लिखाना चाहिए और रेशमी वस्त्र आदि से उसका पूजन करना चाहिए।
सुना जाता है कि पेथड़शाह ने सात करोड़ द्रव्य का व्यय कर और वस्तुपाल मंत्री ने अठारह करोड़ द्रव्य का व्यय कर तीन ज्ञान भण्डार लिखवाये थे। थराद के संघपति आभू सेठ ने तीन करोड़ टंक का व्यय कर सभी प्रागमों की एक-एक नकल स्वर्णाक्षरों से तथा दूसरे सभी ग्रन्थों की प्रति स्याही के अक्षरों से बनवायी थी।
ॐ पौषधशाला श्रावक आदि के पौषध ग्रहण करने के लिए पूर्वोक्त गृहविधि के अनुसार साधारण स्थान स्वरूप पौषधशाला बनानी चाहिए। वह पौषधशाला सार्मिक के लिए बनवायी गयी होने से सानुकूल व निरवद्य योग्य स्थान रूप होने से अवसर आने पर साधु भगवन्तों को भी उपाश्रय के रूप में देनी चाहिए। उसका महान् फल बतलाया है। कहा है-"जो मनुष्य तप-नियम और योग से युक्त श्रेष्ठ मुनियों को उपाश्रय प्रदान करता है-सचमुच उसने मुनियों को वस्त्र, अन्न, पान, शयन, प्रासन आदि सब कुछ प्रदान किया है।"
श्री वस्तुपाल ने 984 पौषधशालाएँ बनवायी थीं।
सिद्धराज जयसिंह के प्रधानमंत्री ‘सान्तू' ने अपने लिए नवीन भव्य आवास बनवाया था। वह आवास वादिदेवसूरि को बतलाकर पूछा-"कैसा लगा ?" प्राचार्य भगवन्त के शिष्य माणिक्य ने कहा- "यदि इसे पौषधशाला करें तो हम उसका वर्णन कर सकते हैं।" मंत्री ने कहा-"आज से ही यह भवन पौषधशाला बने । उस पौषधशाला की बाह्य पट्टशाला में दोनों ओर पुरुष प्रमाण दर्पण लगे हुए थे, जिनमें धर्मध्यान के बाद श्रावक अपना मुख देख सकते थे।
ॐ जन्म-कृत्य बाल्यकाल से ही जीवनपर्यन्त सम्यग् दर्शन का और अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत आदि का पालन करना चाहिए। (इनका स्वरूप अर्थदीपिका में कहा होने से पुनः यहाँ नहीं कह रहे हैं ।)
* दीक्षा ग्रहण * श्रावक को अवसर आने पर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। भावार्थ-"श्रावक यदि बाल्यकाल में दीक्षा ग्रहण न कर सके तो वह नित्य अपने आपको ठगा हुआ समझता है।" कहा है-"सभी