SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२७१ प्रभु के नेत्र-उन्मीलन द्वारा केवलज्ञान-उत्पत्ति की अवस्था का चिन्तन करना चाहिए। सर्वांगीण पूजोपचार द्वारा समवसरण की अवस्था का चिन्तन करना चाहिए। प्रतिष्ठा हुए बाद बारह महीने तक तथा विशेषतः प्रतिष्ठा के दिन स्नात्र प्रादि करके वर्ष पूरा हो जाए तब अष्टाह्निका आदि विशेष पूजा करके आयुष्य की गाँठ बाँधनी चाहिए । बाद में उत्तरोत्तर विशेष पूजा करनी चाहिए। उस दिन यथाशक्ति सार्मिक वात्सल्य और संघपूजा आदि करनी चाहिए। प्रतिष्ठा षोडशक में तो इस प्रकार कहा है---"आठ दिन तक निरन्तर पूजा करनी चाहिए और अपनी शक्ति के अनुसार सर्व प्राणियों को (याचकों को) दान देना चाहिए।" + पुत्र-दीक्षा पुत्र-पुत्री, भाई, भतीज, स्वजन, मित्र तथा अन्य परिजन का भव्य महोत्सव के साथ दीक्षा तथा बड़ी दीक्षा का महोत्सव करना चाहिए। कहा है-"उस समवसरण में भरत चक्रवर्ती के 500 पुत्र तथा 700 पौत्र कुमारों ने दीक्षा अंगीकार की।" कृष्ण और चेटक राजा ने तो अपनी पुत्रियों का भी विवाह नहीं कराने का नियम लिया था। अपनी पुत्री आदि तथा थावच्चापुत्र आदि की दीक्षा भव्य महोत्सव के साथ कराई थी, जो प्रतीत ही है। दीक्षा प्रदान करने से महान् फल मिलता है। कहा है-"उन माता-पिता तथा स्वजन वर्ग को धन्य है, जिनके कुल में चारित्र को धारण करने वाले महान् पुत्र पैदा हुए हैं।" लोक में भी मान्यता है-"पिण्ड के इच्छुक पितर (पितादि) तभी तक संसार में भ्रमण करते हैं जब तक उनके कुल में विशुद्धात्मा साधु होने वाला पुत्र पैदा नहीं होता है।" 卐 पद-स्थापना ॥ अपने दीक्षित पुत्र आदि के अथवा अन्य पद के योग्य मुनियों के गणि, वाचनाचार्य, य और प्राचार्य आदि पदवी-प्रदान का भव्य महोत्सव शासनप्रभावना के लिए करना चाहिए। सुना जाता है कि प्रथम तीर्थंकर के समवसरण में इन्द्र महाराजा ने मुनियों को गणधर पद पर और वस्तुपाल मंत्री ने इक्कीस महात्माओं को प्राचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया था। * श्रुतज्ञान भक्ति* विशिष्ट पत्रों (ताम्र, ताड़पत्र, कागज) पर सुन्दर व विशुद्ध अक्षरों में न्यायोपार्जित धन से श्री कल्प आदि पागम तथा जिनेश्वर के चरित्रों का लेखन कराना चाहिए तथा संविग्न गीतार्थ गुरु के पास उन ग्रन्थों का श्रवण करना चाहिए। ग्रन्थ के प्रारम्भ के समय भव्य उत्सव करना चाहिए और प्रतिदिन अनेक भव्यजीवों के प्रतिबोध के लिए पूजा व बहुमानपूर्वक, व्याख्यान कराना चाहिए । उपलक्षण से ग्रन्थ का वाचन एवं अध्ययनादि करने वाले की वस्त्र आदि से सहायता करनी चाहिए। कहा है-"जो मनुष्य जिनशासन सम्बन्धी पुस्तकें लिखाते हैं, उनको पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं और श्रवण करते हैं तथा उनके रक्षण के लिए प्रयत्नशील होते हैं, वे मनुष्यलोक तथा देवलोक के और मोक्ष के सुख प्राप्त करते हैं।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy