________________
श्राद्धविधि / २५८
* विवाह
पाणिग्रहण अर्थात विवाह । विवाह भी त्रिवर्ग की सिद्धि में हेतुभूत होने से 'उचित' ही करना चाहिए ।
समान कुल, सदाचार, शील, रूप, वय, विद्या, वैभव, वेष, भाषा व प्रतिष्ठा आदि गुणों से युक्त भिन्न गोत्र वाले के साथ विवाह करे । कुल-शील आदि में विषमता होने पर परस्पर अवहेलना, कुटुम्ब - कलह एवं कलंक आदि की सम्भावना रहती है +
·
पोतनपुर नगर में श्रावक की पुत्री श्रीमती का मिथ्यादृष्टि के साथ विवाह हो गया । वह धर्म में अत्यन्त दृढ़ होने से उसका पति उसके विरुद्ध हो गया । परिणामस्वरूप उसको मारने के लिए घड़े में साँप रखकर उसने कहा- "जा, उस घड़े में से फूल की माला ले श्रा ।" श्रीमती उस घड़े के पास गयी । नमस्कार महामंत्र के स्मरण के प्रभाव से वह साँप फूलमाला के रूप में बदल गया । उसके बाद उसके पति आदि भी श्रावक बन गये ।
• कुल-शील आदि की समानता हो तो पेथड़शाह और प्रथमिरगी की तरह हर तरह से सुख-धर्म व बड़प्पन आदि की प्राप्ति होती है ।
कन्या व वर की परीक्षा सामुद्रिकशास्त्र में निर्दिष्ट शारीरिक लक्षरण व जन्म पत्रिका आदि देखकर करनी चाहिए । कहा भी है
"कुल, शील, सम्बन्धी, विद्या, धन, शरीर और वय, ये सात गुण वर में देखने चाहिए, उसके बाद तो कन्या भाग्य के अधीन ही है ।"
मूर्ख, निर्धन, दूरनिवासी, शूरवीर, मोक्षाभिलाषी व तीन गुणी अधिक उम्र वाले व्यक्ति को अपनी कन्या नहीं देनी चाहिए ।
आश्चर्यकारी सम्पत्ति वाले, अत्यन्त ठण्डे, अत्यन्त क्रोधी, विकल अंग वाले और रोगी व्यक्ति को भी कन्या नहीं देनी चाहिए ।
कुल व जाति से हीन, माता-पिता के वियोग वाले, पूर्व परिणीतास्त्री व पुत्र से युक्त पुरुष को भी कन्या नहीं देनी चाहिए ।
जिसके अत्यन्त दुश्मन हों, जो निन्द्य हो, हमेशा कमाकर ही खाने वाला हो अर्थात् निर्धन तथा आलस्य से शून्यमनस्क हो, उसे भी कन्या नहीं देनी चाहिए ।
अपने गोत्र में उत्पन्न द्यूत चोरी आदि के व्यसनी तथा परदेशी व्यक्ति को अपनी कन्या नहीं देनी चाहिए ।
अपने पति पर निष्कपट स्नेह वाली, सास- श्वसुर पर भक्ति रखने वाली, स्वजन में वात्सल्य वाली, बन्धुवर्गं में स्नेह रखने वाली तथा हमेशा प्रसन्न रहने वाली कुलवधू होती है ।
" जिसके पुत्र अपनी आज्ञा के अधीन हों तथा पिता पर भक्ति वाले हों, पत्नी अनुसरण करने वाली हो तथा जिसे धन में सन्तोष हो, उसके लिए यहाँ पर ही स्वर्ग है ।"